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बिजलियाँ कौंधती, रौंदती है घटा / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
नाव मँझधार में, पाल तक है पटा
बिजलियाँ कौंधती, रौंदती है घटा
मार मौसम की गर यूँ ही सहते रहे
डूब जाओगे, तुम तैरना सीख लो
झुक के चलना तुम्हें अब गवारा न हो
कोई संसार में अब ‘बिचारा’ न हो
आँधियाँ ले उड़ीं, फूल थोडे बचे
भर लो झोली, इन्हें तोड़ना सीख लो
कुछ कबूतर उड़े मंदिरों से, जमे-
मस्जिदों के कँगूरों पै हँसते हुए
एक-सा दाना दोनों जगह मिल रहा
चुगते दोनों जगह हैं चहकते हुए
शोर ‘धर्मांतरण’ का करो अनसुना
तोड़ना भूल कर, जोड़ना सीख लो
सबने मतलब की राहें बिछा दी यहाँ
मजहबों की दुकानें सजा दीं यहाँ
खून अपनों ने अपनों का ही कर दिया
प्यार मांगा तो उल्टी कज़ा दी गयी
लीक को छोड़ दो, जाल को तोड़ दो
राह को दो दिशा, मोड़ना सीख लो