भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिजली की आवारागर्दी / रमेश तैलंग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो तो बिजली की आवारागर्दी
जब चाहा आई
जब चाहा चल दी ।

पापा की दाढ़ी
आधी बनी रह गई
जाते-जाते बिजली
कुछ भी न कह गई
आए या न आए
अब उसकी मरज़ी ।

बड़े शौक से घर में
लाए थे ’गीज़र’
सोचा था, कुछ दिन
सुख भोगेंगे जी-भर

पर उसने तो हालत
पतली ही कर दी ।