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बिजली के खम्भे पर / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
बिजली के खंभे पर, आई बुद्धि, जा चढ़ा
उस को देखो । भीड़ ठाँव पर झूम रही है
बँधे हुए हाथी सी । ऊँचे बाँध से बढ़ा
एक हुलुक्का, एक दरेरा, घूम रही है
भीड़ । भीड़ पर भीड़ दूसरी रूम रही है ।
अस्फुट अगणित कंठों की ध्वनि की धारा
महाकाश में मँडराती है, बूम रही है
मरणसिंधु में मग्नप्राय मानवता । हारा
कोई अपने लड़के को दे रहा, सहारा
खंभे वाला उसको दे दे, ले लेता है
वह भी बच्चे को, भीड़ की लहर ने मारा
खंभे को, क्या करे, फेंक उसको देता है ।
कल जिस छाती में पौरुष का पार नहीं था,
आज उसी के प्राणों का उद्धार नहीं था ।