बिणजारे आकाश ! करले / हरीश भादानी
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
सोने के अवसर के ऊपर
मिला तुझे अनमोल महूरत
बिना तले की बांबी वाला
साथ हुआ है प्यासा मौसम
पहन होकड़े लूट लुटेरे
यह मेरा अनखूट ख़ज़ाना
पड़ा दिगम्बर सात समंदों
कितनी ही तन्वंगी नदियाँ
शिखरों-घाटी फाँद उतरते
कल-कल करते झरनों का जल
चूके मत चौहान कि घर में
घड़े-मटकियाँ जितनी भी हैं
अपनी सत-हथिया किरणों को
तप-तप तपते थमा तामड़े
कहदे साँसों-साँस उलीचें
बह-बह बहती यह नीलाभा
भरे-भरे सारे ही बर्तन
रखता जा अपने तलघर में
जड़दे लोहे के किवाड़ पर
बिन चाबी के सातों ताले
दसियों, बीसों बरसों तक के
करले जो कर सके जतन तू
,
छींप न पाए तेरी मेड़ी
धरती जादों की परछाई
बिणजारे आकाश करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
चम-चमती आँखें उघाड़कर
देख, देखता, गोखे भी जा
मेरे एक कलेजे के ही
इस कोने पर अड़ा-अड़ा-सा
हर क्षण उठे पछाटें खाए
यह है अड़ियल अरबी सागर
धोके है जिसको गंगाजी
वह आमार बांगला खाड़ी
चढ़-उतराती साँसों ऊपर
लोहे के मस्तूल फरफरें
बंसी-जालों वाला मानुष
मर, जन्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी
निरे लाड से इसे पुकारूँ
पूरब का वासी हिंदोदध
तू भी देख न पाया आँगन
वह मेरा ही शान्त, प्रशान्त
सोया-सोया लगे तुझे जो
वह त्राटक साधक कश्यपजी
हो जाए है तन कुंदनिया
वह कुंकुमिया लाल समंद
अनहद नाद किए ही जाए
कामरूप में ब्रह्मपुत्र जी
पंचोली पंजाबन बैठी
आंजे आँखों में नीलाई
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
काले-पीले चेहरों वाले
वर्तुल चौकीदार बिठाले
कह, कानों में धूपटिये से
और भरे ईंधन अलाव में
कह, उसकी लपती लाटों से
मेरी बळत अजानी उससे
भक-भक झोंसे जाए लम्पट
मेरे हरियाये खेतों को
साझा कर उंचास पवन से
भल माटी को रेत बनादे
सातों जीभों को सौ करले
पी-पी, चाट खुरचता जाए
सुन, मेरे ओ अथ के साथी !
मेरी इति ना देख सकेगा
उससे पूछ, याद आ जाए
एक समंदर लहराता था
कैसे छोड़ गया मुझको वह
मैंने कभी न पूछा उससे
अब खारा, मीठा, बर्फीला
जितना भी है, जैसा भी है
कभी तुम्हारा दिया हुआ ही
अब यह केवल मेरा ही है
इससे अपनी कूख संजोई
प्राणों से पोशा है इसको
इसका दूजा रूप रचा जो
ले, मेरी आँखों में देख !
झील, झीलता झीले है ना ?
ले, तू, इसमें खुद को देख !
मानवती आँखों का पानी
या फिर पानी वाली माटी
अगर एक भी सूखे तुझसे
मैंने अपनी जात गंवाई !
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई ?