भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिदा / सत्यप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज थूं मथरा जावै
भलां ई जा,
म्हैं कद रोकूं।

थारै मंगळ पथ रौ अपसुगन करूं कोनी,
थारा दुपटा नै खींच खींच फाडूं कोनी,
निस्चै जांण,
हाथां रै लूम लूम थारौ चन्नण उतारूं कोनी,
सनेसौ भेजण री उतावळ करूं कोनी।

आज थूं मथरा जावै।
एकर कुंज में चाल,
चंपै रा फूल लाई हूं,
सूंघतो जा।
माखण मिसरी लाई हूं,
चाखतौ जा।
दही रोटी रौ सिरावण कर लै।
थारै मंगळ तिलक रचाऊं,
जमना रै नीर रौ बेवड़ौ उठायां
थारै सांमी आऊं
थूं सुगन मनाय लै।
गुळ सूं सुगन मनाऊं
कै‘वै तो सुगनचिड़ी बण जाऊं,
पग पग माथै सुगन बधाऊं
थारे गियां पछै ई
मुरली रै घूघरा बांधस्यूं,
मुगट रै मोती टांकस्यूं
माळा में चिरमियां पोवस्यूं
जठै जठै थारै पग रा निसांण है
उठै उठै हरसिंगार रा फूल धरस्यूं
एकली ई कुंजां में बस्ती करस्यूं।
खुदोखुद वंतळ करस्यूं,
म्हारी देह माथै
जठै जठै थारै हाथां रा निसांण है
उठै उठै केसर चन्नण लगावस्यूं,
थूं मथरा गियौ
तौ थारी प्रीत नै
गाढ़ी साथण बणा राखस्यूं।