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बिना किसी फर्क के / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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सूरज तुम्हारी किरणें,
सभी पर समान पड़ती है,
गाँव हो या शहर,
नदी हो या नहर,
हिन्दू हो या मुसलमान,
भारत हो या पाकिस्तान,
तुम कोई तर्क नहीं करते,
किसी में कोई फर्क नहीं करते,
उन्हे प्रकाश देने में,
सूरज तुम्हारी किरणे...

बादल तुम्हारी बूँदे ,
सभी के खेतो में समान पड़ती है,
काले खाँ का हो या शेर सिंह,
सूमी हो या दिलेर सिंह,
 मक्का हो या धान,
महल हो या मकान,
तुम कोई तर्क नहीं करते,
उन्हे पानी देने में,
बादल तुम्हारी बूँदे।

हवा तुम्हारे झोकें,
सभी को समान रूप से छूते है,
निर्धन हो या धनवान,
पशु हो या इंसान,
पौधे हो या पेड़,
बच्चे हो या फिर अधेड़,
तुम कोई तर्क नहीं करतीं,
उन्हें जीवन देने में,
हवा तुम्हारे झोकें।

गंगा तुम्हारी लहरें,
सदैव बहती रहती है,
राम के लिये, रहीम के लिये,
तुलसी के लिये, कबीर के लिये,
गुरु के लिये, शिष्य के लिये,
बौध्द के लिये, सिक्ख के लिये,
तुम कोई तर्क नहीं करती,
किसी में कोई फर्क नहीं करती,
उन्हें पावन करने में,
गंगा तुम्हारी लहरे....

आओ हम सूरज के प्रकाश से,
हवा के झोंको से,
नदी के पानी से,
बादलो की बूँदों से,
सीखें,
दूसरों के लिये जीना,
बिना किसी तर्क के,
बिना किसी फर्क के.....॥