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बिना चेहरे वाले / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
कितने दिन हो गए
जागते हुए
नींद भर गई
आंखों में
दिखने लगे हैं
बिना चेहरे वाले
आदमी
वे बोलना चाहते हैं
खाना चाहते हैं
सूंघना चाहते हैं
देखना चाहते हैं
पर
सुन भी नहीं पाते
प्रतिक्र्र्रिया में
शब्द गिर पडे. हैं
किसी कुंए में
मुंडेर पर खड़ा
आसमान
झांक रहा
देख रहा
विस्मय से
क्या
बिना चेहरे वाले
आदमी