बिना दर्जे का नागरिक / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
कई गाँठों से बँधा मैला कपड़ा
निकाला उस स्त्री ने
अपने ब्लाउज में से
कच्चे दूध की गंध से भरा,
पसीने की गंध से भरा,
शायद रूमाल रहा होगा कभी
पर खो चुका था अब अपनी पहचान
हालाँकि ये सबसे सुरक्षित जगह नहीं
बस जेब की तरह कटने का डर नहीं
सूखी हुई उँगलियों से
खोलीं धीरे-धीरे अपने जीवन की परतें
उकडूँ बैठे-बैठे ही
रेल के डिब्बे की राहदरी में
निकाला एक मुड़ा-तुड़ा
नया-नकोर पाँच का नोट
बच्चे की तरह सहलाते हुए
किया उसे सीधा
निकालीं उसकी सलवटें
उसका मुड़ा-तुड़ापन
फरफराने लगा फिर नोट उसकी उँगलियों में
चमकी हरियाली उस वीराने में
उसकी बच्ची की आँखों में लहरायी खुशी
बह निकले आँसू नदी से
खा पायेगी उसकी बच्ची भी
पैकेटबंद मँूगफली के दाने
सीटों पर बैठे बच्चों की तरह
यात्रियों के दिमाग में
जगह है इन बेटिकटों की
संडास के साथ खाली जगह
सभी पिल पड़े उस अभागन पर
उठा दिया बीच रास्ते से
नहीं बिठाया उसे सीट पे
भेड़ से भी ज्यादा लाचार
गरीब स्त्री चल दी संडास की ओर
अपनी बच्ची के साथ
कौन-से देश की नागरिक है वो
किस दर्जे की,
कौन-से राजा-महाराजा हैं हम
किसी को शर्म नहीं आयी
रास्ते में अब कोई व्यवधान नहीं था
कोई बिखरा सामान नहीं था
फैला लो टाँगें अब दूसरी ओर
बड़ी देर से तुम
अपने को सिकोड़े बैठे थे।