भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिना बताए कहाँ गए / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
टूट गए पर
तुम बिन मेरे
पिंजरे में दिन-रात
रजनीगन्धा
दहे रात भर
जागे-हँसे चमेली
देह हुई निष्पंद
कि जैसे
सूनी खड़ी हवेली
कौन भरे
मन का खालीपन ?
कौन करेगा बात ?
कोमल-कोमल
दूब उगी है
तन-मन ओस नहाए
दूर कहीं
कोई है वीणा
दीपक राग सुनाए
खद्योतों ने
भरी उड़ानें
जरे कमलनी पात
बिना नीर के
नदिया जैसी,
चँदा बिना चकोरी?
बिना प्राण के
लगता जैसे
माटी की हूँ छोरी
प्राण प्रतिष्ठा हो
सपनों की
टेर रही सौग़ात