भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिना रीढ़ वाले भी कैसे खड़े हैं / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
बिना रीढ़ वाले भी कैसे खड़े हैं
हमारे शहर में भी धोखे बड़े हैं
न उनके हृदय है, न संवेदना है
न शर्मोहया है वो फूटे घड़े हैं
धुलें खूब चेहरे, मलें खूब साबुन
दिखे भी हसीं किन्तु भीतर सड़े हैं
बड़ी बात करते थे महफ़िल में आकर
लगी आग घर में तो सोये पड़े हैं
सुनते हैं सच की वकालत ये करते
मुखैाटा उतारो तो झूठे बड़े हैं
ये हमसे नहीं उन चिरागो़ं से पूछो
कि वो किस तरह आँधियों से लड़े हैं
उड़ें और उड़कर सितारों को छू लें
कई ख़्वाब ऐसे नज़र में गड़े हैं
मेरे शेर खूने जिगर से हैं पैदा
मेरे क़द से अश्आर मेरे बड़े हैं