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बिना सूई की घड़ियाँ / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
हलके नीले और राख के
से रंग में जो रँगी हुई।
है नभ की दीवाल, वहाँ पर
गोल घड़ी जो टँगी हुई।।
अम्माँ देखो तो वह कितनी
सुंदर चाँदी-सी उज्ज्वल।
लगता जैसे वाच फैक्ट्री
से आई हो अभी निकल।।
पर अम्माँ यह घड़ी अजब है,
इसमें कोई सूई नहीं।
ऐसी तो ईजाद अभी तक,
घड़ी कहीं पर हुई नहीं।।
पता नहीं इसमें चाबी भी,
कैसे दी जाती होगी।
या यह है ऑटोमेटिक ही,
जो खुद ही चलती होगी।।
माँ, यह तो दीवाल घड़ी है,
वे देखो अनगिनत घड़ियाँ।
छोटी-छोटी रिस्ट वाच-सी,
चमक रहीं जैसे मणियाँ।।
तरह-तरह की घड़ियों की जो,
लगी नुमाइश है ऊपर।
मन करता माँ, जाकर देखूँ,
एक-एक को, छू-छूकर।।
कैसा सजा चक्र घड़ियों का,
घूम रहा धीमे-धीमे।
मेरा मन भी उसके संग ही,
घूम रहा धीमे-धीमे।।