बिन कहे / आनंद कुमार द्विवेदी
तुम हमेशा कहते हो
"बातें तो कोई तुमसे ले ले'
शब्द बुनना तुम्हारा काम है"
पर तुम्हीं देखो
शब्द कितने विवश हैं,
बिन कहे ही लुटाया तुमने
मुझ पर हर रंग,
बिन कहे ही दिन रात धोया मैंने
आँसुओं से तुम्हारी मूर्ति,
बिन कहे ही चुपचाप करता हूँ
अपने हर सपने का श्रृंगार,
जब जब बिना कहे तुम तोड़ देते हो
एक बारीक धागा ...
मैं रात रात कातता हूँ सूत
और बिना कुछ कहे
बना लेता हूँ एक झोली
अल सुबह बिना कुछ कहे
फैला देता हूँ तुम्हारे सामने
बिन कहे तुम बरसा देते हो उसमें
प्यार या तिरस्कार...
स्वयं की इच्छानुसार,
मेरे अन्दर एक भागीरथ है
बिन कहे ही वो ले आएगा
एक दिन ...तुमको
जन्मों से बंजर
मेरे वज़ूद की पथरीली ज़मीन पर
मगर सुनो !
क्या तुम नहीं समझ सकते
एक बात बिन कहे
कि
तुम्हारे बिना
न मेरा कोई अस्तित्व है
न कोई जीवन !