साँस का ये साज न रुक जाये, आओ,
रो रहा है हृदय पर आँसू निकलते ही नहीं है।
नयन में उम्मीद के अब ख्वाब पलते ही नहीं हैं।
हो गया है बावरा मन कौन समझाये इसे ये,
लाख चीखो किन्तु पत्थर दिल पिघलते ही नहीं हैं।
मौन रहने का तुम्हें कैसे वचन दूँ,
खुद बताओ किस तरह ये लब सियूँगा।
सेंध किसने भावनाओं के घरौंदे में लगायी।
प्रीति के विश्वाश की ये नींव कैसे चरमरायी।
हाँ चले जाना ख़ुशी से छोड़कर लेकिन बताओ,
क्या करोगे कल तुम्हें मेरी कभी यदि याद आयी।
सोंचना था किन्तु ये तुमने न सोंचा।
मैं नहीं शंकर, जहर कैसे पियूँगा।