भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिन पातों के पेड़ खड़ा है / कात्यायनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिन पातों के पेड़ खड़ा है।
अरे बेशरम,
कपड़े लादे ऊब गया तो
यूँ उतारकर खड़ा रहेगा
सरेआम तू नंगा-बुच्चा?
आने को दरज़ी बसन्त है
हरा-हरा कुर्ता सिल करके,
उसपर टाँके लाल बटन
और झालर नीले
और गुलाबी फुँदने वाली
टोपी मनहर।
सुन लो आहट,
गुन-गुन करते,
मस्त-मगन कुछ अपनी धुन में
चले आ रहे हैं बौड़मजी!

रचनाकाल : जनवरी-अप्रैल, 2003