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बिफरती रेत में / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
इस बार होगा जमाना
धान से भरेंगे कोठार
बाबा करेंगे
पीले हाथ मेरे
यह सपने देखे थे
साल-दर-साल
पर हर साल
सब जीमता गया अकाल ।
इस बार
जब फिर सावन आया
आकाश में कुछ तैर आया
मैंने सपने
और बाबा ने बीज बोया
मगर इस बार फिर
वही हुआ
बाबा के बीज और मेरे सपने
झुलसती/ उफनती/ बिफरती रेत में
जल गए ।
अब
न बाबा के पास बीज हैं
न मेरे पास सपने
न आस/
न इच्छा ।