बिरसा के नाम / विद्याभूषण
ओ दादा!
कब तक
बँधे हाथ खड़े रहोगे
वर्षा-धूप-ठण्ड में
एक ठूँठ साल के तने से टिके हुए?
ओ दादा !
खूँटी-राँची-धुर्वा के नुक्कड़ पर
तेज़ रफ़्तार गाड़ियों की धूल-गर्द
फाँकते हुए
कब तक
बँधे हाथ खड़े रहोगे ख़ामोश?
किसने तुम्हें भगवान कहा था?
पूजा गृह की प्रस्तर-प्रतिमा की तरह
राजनीतिक पुरातत्त्व का अवशेष
बना दिया गया है तुम्हें,
जबकि तुम अमृत ज्वालामुखी थे,
ज़ोर-ज़ुल्म के ख़िलाफ़
और ‘दिक्कुओं‘ के शोषण से दुखी थे।
आज़ाद हिन्दुस्तान में
शहीदों को हम इसी तरह गौरव देने लगे हैं
कि ज़िन्दा यादगारों को मुर्दा इमारतों में
दफ़न करते हैं,
बारूदी संकल्पों का अभिनन्दन ग्रन्थ
छाप कर समारोहों को सुपुर्द कर देते हैं,
ताकि सुरक्षित रहे कोल्हू और बैल का
सदियों पुराना रिश्ता
और इतिहास की मज़ार पर
मत्था टेकते रहें नागरिक।
आज कितना बदल गया है परिदृश्य :
नए बसते नगरों-उजड़ते ग्रामाँचलों में
एक तनाव पसरा रहा है,
झरिया-धनबाद-गिरिडीह की ख़दानों में
ज़िन्दगी सुलग रही है,
बोकारो की धमन भट्ठियाँ और चासनाला के लोग
एक ही जलती मोमबत्ती के दो सिरे हैं।
पतरातू-भवनाथपुर-तोरपा की मार्फ़त
तिजोरियों, बैंक लाकरों, बेनामी ज़ायदादों के लिए
राजकोष खुल गया है
और आमदनी के रास्ते खोजती सभ्यता के मुँह
ख़ून लग गया है दादा !
आज कितनी बदल गयी हैँ स्थितियाँ :
जगन्नाथपुर मन्दिर के शिखर से ऊपर उठ गई हैं
भारी इंजीनियरी कारख़ाने की चिमनियाँ,
सूर्य मन्दिर के कलश
और रोमन-गोस्सनर चर्चों के
प्रार्थना भवनों से ऊँचा है
दूरभाष केन्द्र का माइक्रोवेव टावर।
लहराते खेतों को उजाड़ कर बनी हवाई पट्टी
औद्योगिक विकास के नाम पर
खुली लूट का आमन्त्रण देती है
आला अफसरों को, श्रेष्ठि जनों को, जनसेवकों को।
हटिया कारख़ाने की दिन-रात धड़धड़ाती मशीनें
लौह-इस्पात सँयँत्र उगलती रहती हैं
देश-देशान्तर के लिए और,
मेकान-उषा मार्टिन के ग्लोबल टेण्डर खुलते हैं,
और खुलते जा रहे हैं
आरामदेह अतिथि गृह, चकला केन्द्र, आलीशान होटल,
जनतन्त्र को उलूकतन्त्र में ढालते हुए।
दादा !
विकास के इसी रास्ते
टिमटिमाती ढिबरियों की लौ
पहुँचती है मज़दूर झोपड़ों में, खपड़ैल मकानों में,
दूरदराज गाँवों में।
सच, कितना बदल गया है परिवेश :
अल्बर्ट एक्का के नाम।
वसीयत होने के बावजूद
नगर चौक पर फिरायालाल अभी तक काबिज़ है।
तोरपा-भवनाथपुर-पतरातू-हटिया-डोरण्डा में
सरकारी इमारतों के फाटकों पर
विस्थापितों की एक समान्तर दुनिया
उजाड़ के मौसम का शोकगीत गा रही है।
चिलचिलाती धूप में अन्धेरा फैलाता है
हटिया विद्युत ग्रिड स्टेशन नावासारा-तिरील में।
कोकर-बड़ालाल स्ट्रीट में टेलिप्रिण्टर-आफ़सेट मशीनों पर
समाचार का आयात-निर्यात व्यवसाय
दिन-रात चल रहा है।
मगर दीया तले अन्धेरा है दादा !
अन्धेरा है पतरातू तापघर की ज़मीन से उजाड़ कर
बनाई गई बस्ती में,
अन्धेरा है
झारखण्ड के गाँवों में, जंगलों में, पहाड़ों पर,
प्रखण्ड विकास अँचल कार्यालयों के इर्द-गिर्द,
वन उद्योग के सरकारी महकमों के चारों ओर
अन्धेरा है।
दादा, झारखण्ड के गर्भ गृहों की लूट ज़ारी है।
जंगल उजाड़ हो गए हैं राजपथ की अभ्यर्थना में।
पहाड़ों पर
कितने साल वृक्ष अरअरा के कट चुके हैं,
खदानों के बाहर काला बाज़ारियों के ट्रकों की
शृंखला अटूट लग रही है,
पतरातू विद्युत गृह अनवरत जल रहा है
राजधानी की मोतियाबिन्दी आँखों में
रोशनी भरने के लिए।
उस दिन लोहरदगा रेल लाइन की पटरियों पर
उदास चलती मगदली ने पूछा था मुझसे,
सिसलिया और बुँची के चेहरों पर
छले जाने का दर्द था,
सावना की आँखों में वही हताशा झाँक रही थी
जो ब्रिटिश राज से जूझते हुए
राँची सदर जेल में
सुकरात की तरह ज़हर पी कर बुझते हुए
तुमने महसूस की होगी।
तुम कौन थे?
क्या किया था तुमने अपनी कौम की ख़ातिर?
उस दिन यही सवाल पूछा था क्लास में।
मास्टर जी सिर खुजलाते बोले थे --
भगवान थे, फिरँगियों की क़ैद में मरे थे
बीमार हो कर।
दादा ! दन्तकथाओं की मालाओं से दब कर
तुम पुराणकथाओं के नायक बन गए हो,
मगर ज़ुल्म से टक्कर लेने वाले उस आदमी
की चर्चा क्यों फीकी है?
अनामिका तिर्की तुम्हें भगवान मानती है,
यही जानता है विवेक महतो।
राँची विश्वविद्यालय के परीक्षा केन्द्रों से
उफनती युवा ज्वालामुखी
डैनी-अमज़द-राज बब्बर और
पद्मिनी कोल्हापुरी को समर्पित है।
पार्टियाँ इस भीड़ को अपनी फौज में
बदलने की कोशिश कर रही हैं लगातार…
वैसे शहर में पार्टियाँ अकसर चलती हैं!
किसी घोटाले से बेदाग बचने की ख़ुशी में
जश्न की महफ़िल सजती है,
थैली पार्टियों से झण्डा पार्टियों की दोस्ती
ख़ूब जमती है,
क्योंकि सफ़ेदपोशों के इस देश में
बिचौलियों की चान्दी है,
जनता नेता की बान्दी है।
लेकिन तुम, दादा तुम
कब तक, कब तक
बँधे हाथ खड़े रहोगे
खूँटी-राँची-धुर्वा के तिराहे पर
ख़ामोश?