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बिरह की अग खिला समंदर कूँ / क़ुली 'क़ुतुब' शाह

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बिरह की अग खिला समंदर कूँ
मैं हुमा हों खिलाओ मुंज ना बात

क़द-ए-राना व होर लटकता चाल
पाया दो सुना थे दो जग लमआत

जुल्फ-ए-सेहराँ में तालिबाँ हिलजे
बतिल-अल-सेहर नईं है इस अबियात

नयन दरिया में उबलें हैं मोती
इश्क़ गुडरी बिकावे हाते हात

हुस्न के दावे होर की करते
इस दिए है अज़ल थे हुस्न बरात

शेरा तेरा मआनी सदके़ नबी
लिख लेते हाते गाते पिलात