भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिल्कुल तुम पर गया हूँ मैं / भूपिन्दर बराड़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोटी सी बैठक थी हमारी
फिर भी काफी थी
तुम्हारे दोस्तों के लिए
आए दिन उनकी चौकड़ी जमती
तुम्हें बातों का शौक था
उन्हें चाय का
और अनगिनत प्याले बनाती
माँ थकती कहाँ थी

एक छोटी सी दुनिया थी तुम्हारी
जिसमे बसती थीं
मुफ्त में मिलने वाली ख़ुशियाँ
झट से पूरी होने वाली आशाएं
और उन सब पर तैरता हुआ
एक अनंत विश्वास कि होनहार बेटा
जवान हो रहा है घर में
 
छिपाए छिपती नहीं थी
तुम्हारी खिली बांछें
तिमाही छिमाही तुम्हारे दोस्त
जब मुझे पास बुलाते
और नाटकीय ढंग से
एक सुर में दोहराते:
इस कदर तुम पर गया है यह छोकरा
कि तुम्हारा बचपन भर लगता है
फिर से जीता हुआ

तुमने यकीन किया उनका
मेरे सरल दिल पिता
मेरी आँखों में झांकते हुए
कहाँ जान पाए तुम
कि खाना खाकर निकलूंगा
तो मैं लौटूंगा नहीं एक रात

सोचता हूँ
मौक़ा मिलता तो बताता तुम्हे
कितनी भयावह थी वह रात
एक ख़त्म न होने वाली गली थी
संकरी,अँधेरी और उमस भरी
जिससे गुज़रते मैं लड़खड़ाया कई बार
मेरा पीछा कर रही थी लगातार
एक सुबकी जो माँ की रही होगी
तुम्हें सुबकना नहीं आता था
द्वितीय विश्व युद्ध के साहसी योद्धा
और एक गुमसुम हुए आदमी की
आवाज़ नहीं जाती दूर तक

सोचता हूँ
मौका मिलता तो कहता
न आवारा था मैं न अहसान फरामोश
सिर्फ संतान था ऐसे युग की
जिसमे घर छोड़ना लगता था लाज़मी
गर दिमाग में पनपने लगें
अस्तित्व और अस्मिता के सवाल

हालाँकि बहुत दूर तक नहीं चले
यह सवाल
सब सूख कर मुरझा गए
झुलसे हुए शहरों में
फिर बचीं तो अस्थाई नौकरियां
असहाय अजनबी औरतें
प्यार का नाटक करतीं हुईं

यह कोरा अड़ियलपन था मेरा
या खून में मिली
हार न मानने की जिद
कि मैं निकला तो चलता चला गया
मरुस्थल की सूखी हवा में
थपेड़ों को सहता हुआ

जब भी मौका आया गाहे बगाहे
थम कर सांस लेने का
तो पाया कि ऐसा करने के लिए भी
चाहिए थी चतुराई या शुद्ध कला
दोनों ही नदारद थीं जो
मेरे संस्कारों में

सोचता हूँ
तुम होते तो कहता
बाबा मैं भी थकने लगा हूँ अब
ढीले पड़ने लगे हैं कदम
मैं भी आ पहुंचा हूँ
उम्र के उस मोड़ पर
जहाँ वक्त की घंटी
सुनने लगती है साफ़ साफ़
और मन में सहसा उठने लगती है
कसक लौट जाने की

जानता हूँ
यह सब सोचना भी व्यर्थ है
जब तुम्हारी चौदहवीं पुण्यतिथि भी
निकल चुकी है मेरे बगैर

मैं चौदह से थोड़ा ही बड़ा तो था बाबा
जब मैं घर छोड़ कर निकला था उस रात