भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिल्कुल नई जगह / विजेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
यह जगह बिल्कुल नई है
सबसे मज़ेदार बात
मैं यहाँ पहली बार आया हूँ
आस-पास कुछ बुनकर हैं
कुछ लकड़हारे कुछ
धुनकर हैं
अधिक हैं ग़रीब-गुर्बा
न कोई असर है
न रुतबा

फूस की झोपड़ियाँ
बहुतों का फूस उड़ गया है
बहुत है कचरा हर तरफ
अंदर जैसे सबकुछ
सड़ गया है
सोचता रहा
ये भाव मेरे अपने हो जाएँ
गुनता रहा नया रूप पाएँ

कैसे रह लेते हैं
इन अँधेरी कोत कोठरियों में
कैसे उफनता है धन
अँधेरी तिजोरियों में
न ताज़ी हवा है
न खुला-निखरा उजाला
लगता है सब काला-काला
पूरा परिवार गुज़र करता है
मेरे लिए भव्य-भवन भी
कोत पड़ता है

छप्पर के नीचे
मिट्टी की कच्ची दीवारें हैं
बीच-बीच में दरकी
काले विवरों से
झाँकता-सा डर है
ये मौत से भी नहीं डरते
सुकर हैं
सहते हैं जाने कैसे
विषबुझी बीमारियों के डंक
सहते हैं अटल
शतदल को खिलाता है पंक

न होते हैं चल-विचल आघातों से
कठिनाइयों की चट्टानें टूट-टूट
गिरती हैं उन पर
न बदलते हैं इरादे
आगे लड़ने के
मैं तनिक असुविधा में
लगता हूँ हाँफने
थोड़े से शीत में काँपने

क्या कभी सोचा है
यह फर्क क्यों है
मेरे खून का रंग
उनसे भिन्न क्यों है?

(दिसम्बर, 2012, जयपुर)