भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिल्ली मौसी / बालकृष्ण गर्ग
Kavita Kosh से
बिल्ली मौसी माला लेकर
पहुँच गई ऋषिकेश,
तिलक लगाकर भक्तिन जैसा
खूब बनाया वेश।
गंगा-तट पर बैठ गई वह
आँखे करके बंद,
पर चूहे भी समझ गए थे
मौसी के छलछंद।
हुई सुबह से शाम, न आया
चूहा कोई पास,
सारे दिन भूखी-प्यासी
मौसी हुई उदास।
[चमचम, अक्तूबर 1974]