बिसरल नहि छी / विभूति आनन्द
पिताके आँखिमे नियोजित डर रहनि
आ ओ अपन निर्माल्य-भावसँ अभिभूत रहथि
माँक आकृति पर रहनि इनारक अन्हरिया
आ ओ स्थिर पानि रहथि
बहिनिक अंतस में
बलिदानी छागर मेमिया रहल रहै
आ भाइसाहेबक सांस
एक अद्भुत वर्जनाक बीच सिहरि रहल छलनि
हम हुनका नांघि क’ बढ़’ चाहलहुँ
भाइसाहेबक सांससँ पुछलहुं कुशल-क्षेम-
ओ हमर आंखिमें किछु हेर’ लगलाह
नजरि बहिनि दिस गेल-
ओ फेरसँ हँसबाक चेष्टा करैत
इजोरिया भ’ गेलि जेना !
मां दिस सेहो देखने रही-
जिनकर ठोरक बीच फँसल रहनि शब्द
आ पल पर आशीषक असीम भाव !
अंतमे पिता दिस तकने रही-
ओ पूर्वक भाँति पूजा पर बैसल रहथि
दिव्य दृष्टिसँ जेना हमरा पढ़ि लेने रहथि-
‘हुँकारी’ शिल्पमे
नदी-धारक विरूद्ध
चलबासँ मना कएने रहथि पुरजोर
मुदा ता धरि बड्ड विलम्ब भ’ गेल रहै
हम खिड़कीक पल्ला फोलि
बाहरमे ठमकल प्रकाशके अंदर बजा लेने रही
ओकर संग हवा सेहो आएल छल
आ जे अबिते हमर एहि झोल-मकड़ाक घरमे
विपक्ष बनि ठाढ़ भ’ गेल रहए
हमरा ओहिना मोन अछि-
हम अपन यात्रा ओतहिसँ शुरूह कएने रही
जत’ सिहरैत छबो ऋतुक अतिरिक्त
आर किछु नहि छल-
मात्र पिता रहथि स्थापित
चतुर्दिक पिता,
आ हुनकर आँखि केर डर, डीही बनि गेल छल !