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बिसाते-रक़्स पे सद शर्क़ो-ग़रब से सरे-शाम / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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बिसाते-रक़्स पे साद शर्क़ो-गरब से सरे शाम
दमक रहा है तेरी दोस्ती का माहे-तमाम
छलक रही है तेरे हुस्ने-मेहरबाँ की शराब
भरा हुआ है लबालब हर एक निगाह का जाम
गले में तंग तेरे हर्फे-लुत्फ़ की बाहें
हरेक रू-ए-हंसी हो चला है बेश हंसी
मिले कुछ ऐसे जुदा यूं की फैज़
जो दिल पे नक्श बनेगा वो गुल है दाग़ नहीं