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बिस्तरों से गुज़री है / सूरज राय
Kavita Kosh से
प्यार की उम्र फ़कत हादसों से गुज़री है ।
ओस है, जलते हुए पत्थरों से गुज़री है ।।
दिन तो काटे हैं, तुझे भूलने की कोशिश में
शब मगर मेरी, तेरे ही ख़तों से गुज़री है ।।
ज़िंदगी और ख़ुदा का, हमने ही रक्खा है भरम
बात तो बारहा, वरना हदों से गुज़री है ।।
कोई भी ढाँक सका न, वफ़ा का नंगा बदन
ये भिखारन तो हज़ारों घरों से गुज़री है ।।
हादसों से जहाँ लम्हों के, जिस्म छिल जाएँ
ज़िंदगी इतने तंग रास्तों से गुज़री है ।।
ये सियासत है, भले घर की बहू-बेटी नहीं
ये तवायफ़ तो, कई बिस्तरों से गुज़री है ।।
जब से ‘सूरज’ की धूप, दोपहर बनी मुझपे
मेरी परछाई, मुझसे फ़ासलों से गुज़री है