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बिस्तर पर सात कविताएँ / विमल कुमार

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1
जब तुम रात में
नहीं होती हो बिस्तर पर
चादर और तकिए दौड़ते हैं काटने को मुझको

वे अपने नुकीले दाँतों से
बना देते हैं कई ज़ख़्म
मेरे जिस्म पर

और जब बिस्तर पर रहकर
तुम बातें नहीं करती हो मुझ से
तो मेरे ज़ख़्म और हो जाते हैं गहरे

मैं तो यही चाहता हूँ
तुम बिस्तर पर रहो
हँसते हुए
कि लगे मुझे
एक चाँद हँस रहा है
हमबिस्तर भले ही न हो कभी ज़िन्दगी में

2

बिस्तर भी एक गवाह है
चश्मदीद गवाह
लेकिन नहीं बुलाया जाता
वह अदालत में कभी
कौन सुनता है उसकी गवाही
हमारे तुम्हारे बीच अनबन में

3

जब तुम हो
मेरे साथ बाँहों में
बिस्तर पर
तो मुझे लगता है
एक नदी है
जो बह रही है
मेरे भीतर ।

4

आधी रात को
यह बिस्तर भी पुकारता है
कोई ख़्वाब जगाता है.
कोई राज़ है
मेरी ज़िन्दगी का
ये तुम्हे बताता है ।

5

बिस्तर पर
इतना गुस्सा
झगड़े
ऊँची आवाज़
लो, अब नदी ने मुँह फेर लिया
बहने लगी उल्टी दिशा में

6

बहुत दिन के बाद
हमबिस्तर हुई हो
किसी ख़ुशी से तर हुई हो
उड़ती हुई एक परी हुई हो
बरसात में एक पेड़ सी हरी हुई हो ।

7

बिस्तर पर जब मैंने नदी को नाराज़ पाया
तो उस से माफ़ी माँग ली
नदी जब ख़ुश हुई
तो बिस्तर भी गाने लगा
तकिया भी मुस्कराने लगा
एक अजीब नशा
मुझ पर छाने लगा
मैं नदी में नहाने लगा