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बिहारी सतसई / भाग 13 / बिहारी

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सहज सेत पँचतोरिया पहिरत अति छबि होति।
जल-चादर कै दीप लौं जगमगाति तनि जोति॥121॥

सहज = स्वाभाविक। सेत = श्वेत, सफेद। पँचतोरिया = एक प्रकार का झूना सफेद रेशमी कपड़ा। लौं = समान।

स्वाभाविक रूप से सफेद पँचतोरिया पहनने पर उसकी शोभा बढ़ जाती है। जल-चादर के अन्दर रक्खे हुए दीपक के समान (उस पंचतोरिया के भीतर से उसके) शरीर की कान्ति जगमगाने लगती है।

नोट - जल-चादर = राजाओं के बाग में पहले ऐसी सजावट होती थी कि फव्वारे से होकर चादर की तरह पानी गिरता था, और उसके बीच में दीपक रक्खे जाते थे, जो अलग से झलमलाते-से देख पड़ते थे।


सालति है नटसाल-सी क्यौंहूँ निकसत नाँहि।
मनमथ-नेजा-नोक-सी खुभी खुभी जिय माँहि॥122॥

सालती = चुभती है, पीड़ा पहुँचा रही है। नटसाल = बाण की नोक का वह तिरछा भाग, जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह जाता है। मनमथ = कामदेव। नेजा = कटार। खुभी = लौंग के आकार का एक प्रकार का कान का गहना। खुभी = गड़ी।

कामदेव के कटार की नोक के समान (नायिका के कानों की) खुभी (मेरे) मन में गड़ गई है। बाण की टूटी हुई गाँसी की तरह पीड़ा पहुँचा रही है-किसी प्रकार नहीं निकलती।


अजौं तर्यौना ही रह्यौ स्तुति सेवत इकरंग।
नाक-वास बेसरि लह्यौ वसि मुकुतनु कैं संग॥123॥

अजौं = आज भी। तर्यौना = (1) कर्णफूल (2) तर्यौ + ना = नहीं तरा। स्तुति = (1) श्रुति, वेद (2) कान। इकरंग = एक मात्र, एक ढंग से। नाक = (1) नासिका (2) स्वर्ग। बेसरि = (1) नाक का भूषण, झुलनी, खच्चर। (2) बे+सरि = जिसकी समानता न हो, अनुपम। मुकुतनु = (1) मुक्ता (2) मुक्त लोग, महात्मा।

श्लेषार्थ - एकमात्र वेद ही की सेवा करने से-सत्संग न कर केवल वेद ही पढ़ते रहने से-कोई अभी तक नहीं तरा। (किन्तु) मुक्तात्माओं-जीवनमुक्त महात्माओं-की सत्संगति से अनुपम स्वर्ग का वास (बहुतों ने पाया)।

एकमात्र (एक ढंग से)कानों को सेते रहने से आज भी यह ‘कर्णफूल’ कर्णफूल ही रह गया। (किन्तु) मुक्ताओं की संगति करके बेसर ने नाक का सहवास पा लिया।

नोट - इस दोहे में भी बिहारी ने श्लेष का अपूर्व चमत्कार दिखलाया है। कविवर रसलीन ने भी एक ऐसा ही दोहा कहा है-

ठग तस्कर सु्रति सेइके लहत साधु परमान।
ये खुटिला स्रुति सेइके खुटिलै रही निदान॥


(सो.) मंगल बिन्दु सुरंगु, मुख ससि केसरि आड़ गुरु।
इक नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन जगत॥124॥

सुरंगु = लाल। आड़ = टीका। गुरु = वृहस्पति। रसमय = तृप्तिमय, रसयुक्त, जलमय।

(ललाट में लगी) लाल बेंदी ‘मंगल’ है। मुख ‘चन्द्रमा’ है। केसर का (पीला) टीका ‘बृहस्पति’ है। (यों मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पति-तीनों ने) एक स्त्री का संग पाकर-स्त्री का संग पाकर-स्त्री योग में पड़कर-संसार के लोचनों को सरस (शीतल) कर दिया है।

नोट- ज्योतिष के अनुसार मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पति के एक नाड़ी में आ जाने से खूब वर्षा होती है। मंगल का रंग लाल, चन्द्रमा का श्वेत और बृहस्पति का पीला कहा गया है।


गोरी छिगुनी नखु अरुनु छला स्यामु छबि देइ।
लहत मुकति-रति पलकु यह नैन त्रिबेनी सेइ॥125॥

छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली। छला = छल्ला, अँगूठी। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष। रति-प्रीति। पलकु = एक क्षण।

गोरी कनिष्ठा अँगुली, (उसका) लाल नख और (उसमें पहनी गई नीलम जड़ी) साँवली अँगूठी-ये तीनों शोभा दे रहे हैं! नेत्र, इस त्रिवेणी (गोरी गंगा, लाल सरस्वती और श्यामला यमुना के संगम)-का सेवन करके, एक क्षण में ही, प्रीति-रूपी मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।


तरिवन कनकु कपोल दुति बिच-बीच ही विकान।
लाल-लाल चमकति चुनी चौका चीन्ह समान॥126॥

तरिवन = तरौना, तरकी, कर्णभूषण विशेष। कपोल = गाल। चुनी = चुन्नी, मणि के टुकड़े। चौका = अगले चारों दाँत।

सोने की तरकी गालों की कान्ति के बीच ही में बिग गई-लीन हो गई देख नहीं पड़ती (हाँ, उस तरकी में जड़ी हुई) लाल-लाल चुन्नियाँ अगले चारों दाँतों के चिह्न के (साथ-साथ) समान भाव से चमक रही हैं।


सारी डारी नील की ओट अचूक चुकै न।
मो मन-मृग करवर गहै अहे अहेरी नैन॥127॥

डारी = (डाली) डाल आदि की बनी हुई हरी टट्टी, जिसकी ओट से शिकारी शिकार करते हैं। कर-बर = (कर-बल) हाथ से ही। अहे = अरी। अहेरी = शिकारी।

नीली साड़ी की टट्टी की ओट से अचूक निशान चलाते हैं, कभी चूकते नहीं। अरी! (तुम्हारे) नेत्र-रूपी शिकारी ने मेरे मनरूपी मृग को हाथ ही से पकड़ लिया।


तन भूपन अंजन दृगनु पगनु महावर रंग।
नहिं सोभा कौं साजियतु कहिबैं ही कौं अंग॥128॥

पगन = पाँवों में। साजियतु = सजता है, बढ़ाता है।

शरीर में गहने, आँखों में काजल, पाँवों में महावर का रंग-ये सब केवल कहने-भर के ही (शृंगार के) अंग हैं, ये शोभा की सामग्री नहीं है-इनसे शोभा की वृद्धि नहीं होती।

नोट - एक उर्दू कवि ने कहा है-

नहीं मुहताज जेवर का जिसे खूबी खुदा ने दी।
कि देखो खुशनुमा लगता है जैसे चाँद बिना गहना॥


पाइ तरुनि-कुच-उच्च पदु चिरम ठग्यौ सब गाँउ।
छुटैं ठौरु रहिहै वहै जु हो मोल छबि नाँउ॥129॥

चिरम = गुंजा, करजनी। ठौर = स्थान। वहै = वही। जु हो = जो वास्तव में है। मोल = दाम। नाँउ = नाम।

नवयुवती के स्तनों पर ऊँचा स्थान पाकर गुंजे ने समूचे गाँव को ठग लिया-सभी को भ्रम हो गया कि हो न हो, यह मूँगा है। किन्तु (वह) स्थान छूटने पर नवयुवती के गले से उतर जाने पर-वही (स्वल्प) मूल्य, वही (भद्दी) शोभा और वही (गुंजा) नाम रह जायगा, जो (वास्तव में) है।


उर मानिक की उरबसी डटत घटतु दृग-दागु।
छलकतु बाहिर भरि मनौ तिय हिय कौ अनुरागु॥130॥

उरबसी = गले में पहनने का एक आभूषण, मणिमाला, हैकल, चौंका। डटत = देखते। दृग-दागु = आँखों की जलन। अनुरागु = प्रेम (अनुराग ‘प्रेम’ का रंग भी माणिक्य की तरह लाल माना गया है)

हृदय पर मणिमाला देखते ही आँखों की जलन घट जाती है। (वह ऐसी दीख पड़ती है) मानो (उस) नायिका के हृदय का प्रेम बाहर होकर झलक रहा है।