बिहारी सतसई / भाग 18 / बिहारी
स्वेद-सलिलु रोमांचु-कुसु गहि दुलही अरु नाथ।
हियौ दियौ सँग हाथ कैं हँथलैयैं हीं हाथ॥171॥
स्वेद = पसीना। रोमांचु-कुसु = खड़े हुए रोंगटे के कुश। नाथ = दुलळा। हियौ = हृदय। हँथलेयैं = पाणिग्रहण।
पसीना-रूपी पानी और रोमांच-रूपी कुश लेकर वर और दुलहिन (दोनों) ने पाणिग्रहण के समय में ही अपने हाथ के साथ ही अपना-अपना हृदय भी (एक दूसरे के) हाथ में दे दिया।
नोट - ‘प्रीतम’ कवि ने कहा है-”धनी की जब सुरत में वह भाव हैं सरसता, कुश रोम तन खड़े हो भूकम्प है दरसता।“
दोहा संख्या 172, 173 और 174 यहाँ जोड़ने बाकि हैं
सनि कज्जल चख झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यौं न नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेस सबु देहु॥175॥
सनि = शनैश्चर। चख = आँख। झख = मीन। सुदिन = शुभ घड़ी। सुदेस = सुन्दर देश।
काजल शनैश्चर है, आँखें मीन लग्न हैं। (यों इस शनैश्चर और मीन लग्न के संयोग की) शुभ घड़ी में प्रेम की उत्पत्ति हुई है। (फिर वह प्रेम) समूचे शरीर-रूपी सुन्दर देश को पाकर (उसका) राजा बन क्यों न भोग करें?
नोट - ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार मीन-लग्न में शनैश्चर पड़ने से राजयोग होता है।
चितई ललचौहैं चखनु डटि घूँघट पट माँह।
छल सौं चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह॥176॥
चितई = देखा। ललचौहैं = मन ललचाने वाले। चखनु = आँखें। छिनकु = एक क्षण। छाँह = छाया, परिछाई।
घूँघट के कपड़े के भीतर से डटकर-निःशंक होकर- (उसने) लुभावनी आँखों से (मुझे) देखा। (फिर वह) छबीली छल से एक क्षण के लिए अपनी छाया (मेरे शरीर से) छुलाकर चली गई।
नोट - छाया छुलाने से नायिका का यह तात्पर्य है कि मैं आप (प्रेमी) से मिलना चाहती हूँ।
कीनैं हूँ कोटिक जतन अब कहि काढ़ै कौनु।
भौ मन मोहन रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु॥177॥
कहि = कहौ। काढ़ै = निकाले, बाहर करे। लौनु = नमक।
करोड़ों यत्न करने पर भी, कहो अब कौन (उसे) बाहर कर सकता है? श्रीकृष्ण के रूप से मिलकर (मेरा) मन पानी में का नमक हो गया-जिस प्रकार नमक पानी में घुलकर मिल जाता है, उसी प्रकार मेरा मन भी श्रीकृष्ण से घुल-मिल गया है।
नेह न नैननु कौं कछू उपजी बड़ो बलाइ।
नीर भरै नित प्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाइ॥178॥
बलाय = बला, रोग। तऊ = तो भी। नित प्रति = नित्य, प्रतिदिन।
(यह) प्रेम नहीं है-कौन इसे प्रेम कहता है? (मेरी) आँखों में (निस्संदेह) कोई भारी रोग उत्पन्न हो गया है। (देखो न) सदा पानी से भरी रहती हैं-आँसुओं में डूबी रहती हैं, तो भी (इनकी) प्यास नहीं बुझती!
छला छबीले लाल कौ नबल नेह लहि नारि।
चूँवति चाहति लाइ उर पहिरति धरति उतारि॥179॥
छला = छल्ला, अँगूठी। नवल = नया। लहि = पाकर। चाहति = देखती है। लाइ उर = हृदय से लगाकर। धरति = रखती है।
छबीले लाल की-रसिया श्रीकृष्ण की-अँगूठी नवीन प्रेम में (उपहार-स्वरूप) पाकर (वह) स्त्री (उसे) चूमती है, देखती है, छाती से लगाकर पहनती है और उतारकर रखती है-पगली-सी ये सारी चेष्टाएँ कर रही है।
थाकी जतन अनेक करि नैंकु न छाड़ति गैल।
करी खरी दुबरी सुलगि तेरी चाह चुरैल॥180॥
नेकु = जरा, तनिक। गैल = राह। खरी = अत्यन्त। सु लगि = अच्छी तरह लगकर।
अनेक यत्न कर-करके थक गई, (किन्तु) जरा भी राह नहीं छोड़ती-पिंड नहीं छोड़ती- छुटकारा नहीं देती। तेरी चाह-रूपी चुड़ैल ने अच्छी तरह लगकर उसे बहुत ही दुबली बना दिया है।