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बिहारी सतसई / भाग 41 / बिहारी

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अनत बसे निसि की रिसनु उर बरि रही बिसेखि।
तऊ लाज आई झुकत खरे लजौहैं देखि॥401॥

अनत = दूसरी जगह। रिसनु = क्रोध से। बरि रही = जल रही। झुकत = झुकते, पैरों पड़ते। खरे लजौंहैं = अत्यन्त लज्जित।

रात में दूसरी जगह रहने के कारण क्रोध से (नायिका का) हृदय विशेष रूप से जल रहा था। किन्तु (प्रीतम को इसके लिए) अत्यन्त लज्जित और पैरों पड़ते देखकर (उसके हृदय में भी) लाज उमड़ आई- वह भी लज्जित हो गई।


सुरँग महावरु सौति-पग निरखि रही अनखाइ।
पिय अँगुरिनु लाली लखैं खरी उठी लगि लाइ॥402॥

सुरँग = लाल। अनखाइ = अनखाकर, अनमनी होकर। खरी = अत्यन्त। लगि लाइ उठी = आग-सी लग उठी = जल उठी। लाइ = आग।

सौतिन के पैर का लाल महावर अनखा (अनमनी हो) कर देख रही थी। (इतने में) प्रीतम की अँगुलियों में लाली देखकर वह अत्यन्त जल उठी (इसलिए कि सौतिन के पैर में इन्होंने ही महावर लगाया है)।


कत सकुचत निधरक फिरौ रतियौ खोरि तुम्हैं न।
कहा करौ जो जाइ ए लगैं लगौंहैं नैन॥403॥

कत = क्यों। रतियौ = रत्ती भर भी। खोरि = दोष। कहा = क्या। लगौंहैं = लगनेवाले, लगीले, फंसनेवाले, लगन-भरे।

सकुचाते क्यों हो? बेधड़क घूमो। तुम्हारा तनिक भी दोष नहीं है। यदि ये लगीले नेत्र जाकर (किसी अन्य स्त्री से) लग जाते हैं, तो तुम क्या करोगे-तुम्हारा इसमें क्या दोष है? (दोष तो है आँखों का!)


प्रानप्रिया हिय मैं बसै नख-रेखा-ससि भाल।
भलौ दिखायौ आइ यह हरि-हर-रूप रसाल॥404॥

ससि = चन्द्रमा। भाल = मस्तक। रसाल = रसीला, सुन्दर। हरि-हर = विष्णु और शंकर।

(विष्णु के हृदय में बसी हुई लक्ष्मी के समान) तुम्हारी प्रियतमा तुम्हारे हृदय में बस रही है, और (शिव के ललाट पर शोभित चंद्ररेखा के समान) उस प्रियतमा के नख की रेखा-रूपी (द्वितीया का) चन्द्रमा शीश पर है। यह हरि-हर का सुन्दर (संयुक्त) रूप लाकर (प्रातःकाल ही) अच्छा दिखलाया!

नोट - नायक भर-रात किसी दूसरी स्त्री के साथ विहार कर प्रातःकाल नायिका के पास आया है। उसके सिर पर उस स्त्री के नख को खरोंट है। इस पर नायिका व्यंग्य और उपालम्भ सुनाती है।


ह्याँ न चलै बलि रावरी चतुराई की चाल।
सनख हियैं खिन-खिन नटत अनख बढ़ावत लाल॥405॥

ह्याँ = यहाँ। बलि = बलिहारी। रावरी = आपकी। सनख = नखसहित। खिन-खिन = क्षण-क्षण। नटत = नहीं (इन्कार) करना। अनख = क्रोध। लाल = प्रीतम।

आपकी चतुराई की चाल, बलिहारी है, यहाँ न चलेगी। नख-रेखायुक्त वक्षःस्थल होने पर भी-छाती पर किसी दूसरी स्त्री के नख की खरोंट होने पर भी-क्षण-क्षण में इन्कार करके, हे लाल! क्यों अनख बढ़ा रहे हो-मुझे क्रोधित कर रहे हो?


न करु न डरु सबु जगु कहतु कत बिनु काज लजात।
सौहैं कीजै नैन जौ साँचौ सौंहैं खात॥406॥

कत = क्यों। बेकाज = व्यर्थ। सौंहैं = सम्मुख, सामने। कीजै = कीजिए। सौंहै = शपथ, कसम।

”न करो तो न डरो“-सारा संसार यही कहता है। (फिर) आप व्यर्थ क्यों बजाते हैं? (यदि) आप सच्ची कसम खाते हैं-यदि आप सचमुच आज रात को किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं गये थे, तो आँखें सामने (बराबर) कीजिए-ढीठ होकर इधर ताकिए।


कत कहियत दुखु देन कौं रचि-रचि बचन अलीक।
सबै कहाउ रह्यौ लखैं भाल महाउर लोक॥407॥

कत = क्यों। रचि-रचि = बना-बनाकर, गढ़-गढ़कर। अलीक = झूठ। कहाउ = कहना, कथन। भाल = मस्तक। लीक = रेखा।

दुःख देने के लिए रच-रचकर झूठी बातें क्यों कह रहे हो? तुम्हारे मस्तक पर (किसी दूसरी स्त्री के पैर के) महावर की रेखा देखने से ही सब कहना (यों ही) रह जाता है-सब कहना झूठ साबित हो जाता है।


नख-रेखा सोहैं नई अलसौंहैं सब गात।
सौहैं होत न नैन ए तुम सौंहैं कत खात॥408॥

नख-रेख = नख की खरोंट, नख-क्षत। सोहैं = शोभती है। अलसौं हैं = अलसाया हुआ। सौहैं = सामने। सौंहैं = शपथ। कत = क्यों।

(हृदय पर किसी दूसरी स्त्री द्वारा दी गई) नख की नई रेखा शोभा दे रही है। (संभोग करने के कारण) सारा शरीर अलसाया हुआ है। (लज्जा से तुम्हारी) ये आँखें भी सामने नहीं होतीं। फिर तुम क्यों (व्यर्थ) शपथ खा रहे हो? (कि मैं किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं गया था।)


लाल सलोने अरु रहे अति सनेह सौं पागि।
तनक कचाई देत दुख सूरन लौं मुँ लागि॥409॥

सलोने = (1) लावण्ययुक्त (2) लवण-युक्त। सनेह सौं पगि = (1) प्रेम में शराबोर (2) तेल में तला हुआ। कचाई = (1) बात का हल्कापन (2) कच्चापन। सूरन = एक प्रकार की तरकारी, ओल, जिसकी बड़ी-बड़ी गोल-मटोल गाँठें जमीन के अन्दर पैदा होती हैं; वह नमक और तेल में तला हुआ होने पर भी जरा-सा कच्चा रह जाने पर मुँह में सुरसुराहट और खाज-सी पैदा करता है। लौं = समान। मुँह लागि = (1) मुँह से लगकर, जबान पर आकर (2) मुँह में खुजलाहट पैदा कर।

हे लाल! आज लावण्ययुक्त हैं, और स्नेह में अत्यन्त शराबोर भी हैं। किन्तु आपकी जरा-सी कच्चई भी सूरन के समान मुख से लगकर दुःख देती है।


कत लपटइयतु मो गरैं सो न जु ही निसि सैन।
जिहिं चंपकबरनी किए गुल्लाला रँग नैन॥410॥

सो = वह। जु = जो। ही = थी। सैन = शयन। जिहि = जिस। चंपक-बरनी = चम्पा के फूल के समान सुनहली देहवाली। गुल्लाला = एक प्रकार का लाल फूल।

मेरे गले से क्यों लिपटते हो? मैं वह नहीं हूँ, जो रात में साथ सोई थी, और जिस चम्पकवर्णी ने तुम्हारी आँखों को गुल्लाला के रंग का कर दिया था-रात-भर जगाकर लाल कर दिया था।