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बिहारी सतसई / भाग 47 / बिहारी

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खिचैं मान अपराध हूँ चलि गै बढ़ैं अचैन।
जुरत दीठि तजि रिस खिसी हँसे दुहुँन के नैन॥461॥

अचैन = बेचैनी। जुरत = जुड़ते। दीठि = नजर। खिसी = लाज।

दोनों के नेत्र पहले मान और अपराध के कारण (नायिका के मान और नायक के अपराध के कारण) ही खिंचे रहे-तने रहे। किन्तु बेचैनी बढ़ते ही (एक दूसरे से मिलने को) चल दिये और नजर जुड़ते (आँखें चार होते) ही क्रोध एवं लाज छोड़कर दोनों के नेत्र हँस पड़े (खिल उठे)।


नभ लालो चाली निसा चटकाली धुनि कीन।
रति पाली आली अनत आए वनमाली न॥462॥

नभ = आकाश। चटकाली = पक्षियों का समूह। रति पाली = प्रेम का पालन किया, समागम या विहार किया। आली = सखी। अनत = अन्यत्र।

आकाश में लाली छा गई, रात बीत गई, पक्षी-समूह चहचहाने लगा, (किन्तु) कृष्णजी न आये। हे सखि! (मालूम पड़ता है कि) उन्होंने कहीं अन्यत्र प्रेम का पालन किया (विहार किया)।


दच्छिन पिय ह्वै बाम बस बिसराँई तिय-आन।
एकै वासरि कैं बिरह लागी बरप बिहान॥463॥

दच्छिन = दक्षिण = चतुर, दक्ष। बाम = कुटिला (स्त्री)। बासरि = दिन। तिय-आन = स्त्रियों की आन (टेक)। बिहान लागी = बीतने लगी।

चतुर नायक होकर भी तुमने कुटिला के वश में पड़कर प्रेमिका की आन भुला दी-प्रेमिका अपने प्रीतम को दूसरी स्त्री के वश में नहीं देख सकती, यह बात भुला दी। (चलकर अपनी प्यारी को तो देखो कि) एक ही दिन का विरह उसे वर्ष के समान बीत रहा है।


आपु दियौ मन फेरि लै पलटैं दीनी पीठि।
कौन चाल यह रावरी लाल लुकावत डीठि॥464॥

मन फेरि लै = मन फेर लिया, उदासीन बन गये। पलटैं = बदले में। पीठि दीनी = पीठ दी = विमुख बन गये। डीठि लुकावत = नजर चुराते हो = शर्माते हो।

अपना दिया हुआ मन वापस लेकर बदले में पीठ दे दी! (यहाँ तक तो अच्छा था, क्योंकि एक चीज फेर ली, तो उसके बदले में दूसरी दे दी-मन फेर लिया और पीठ दे दी!) किन्तु लाल, आपकी यह कौन-सी चाल है कि अब नजर चुरा रहे हो? (चुराना तो चोर का काम है!)

नोट - ”मन फेर लेना, पीठ देना, आँखें चुराना“-इन तीन मुहावरों द्वारा इस दोहे में कवि ने जान डाल दी है। सिवा उर्दू-कवियों के कोई भी हिन्दी-कवि इस प्रकार मुहावरे की करामात नहीं दिखा सका है। हाँ, ‘रसलीन’ ने भी अच्छी मुहावरेबन्दी की है।


मोहि दयौ मेरौ भयौ रहतु जु मिलि जिय साथ।
सो मनु बाँधि न सौंपियै पिय सौतिन कैं हाथ॥ 465॥

जिय = जीव, प्राण। सो = वह। सौंपिये = जिम्मे कीजिए।

आपने मुझे (मन) दिया, (फलतः) वह मेरा हो गया, और अब वह मेरे प्राणों के साथ मिलकर रहता है। उस मन को (जबरदस्ती) बाँधकर, हे प्रीतम, सौतिन के हाथ मत सौंपिए। (एक तो उसपर मेरा अधिकार, दूसरे वह मुझसे राजी, फिर न्यायतः उसे दूसरे को देना आपको उचित नहीं!)


मार्‌यौ मनुहारिनु भरी गार्‌यौ खरी मिठाहिं।
वाकौ अति अनखाहटौ मुसक्याहट बिनु नाहिं॥466॥

मार्‌यौ = मार भी। मनुहारिनु = मनुहारों, प्यारों। गार्‌यौ = गाली भी। खरी = अत्यन्त। मिठाहिं = मीठी। अनखाहटौ = क्रोध भी।

उसकी मार भी प्यारों से भरी है, और गाली भी अत्यन्त मीठी है। उसका अत्यन्त क्रोध भी बिना मुस्कुराहट के नहीं होता। (नायक के हृदय में नायिका के प्रतिकूल कुछ नहीं सूझता!)

नोट - इसी प्रकार संस्कृत के एक कवि कहते हैं- ”लम्बकु चालिंगनतो लकुचकुचायाः पादताडनं श्रेयः“-लम्बे कुचोंवाली के आलिंगन से छोटे कुचोंवाली का पद-प्रहार भी अच्छा।“ मसल मशहूर है-‘दुधैल गाय की लात भी भली!’


तुम सौतिन देखत दई अपनैं हिय तैं लाल।
फिरति डहडही सबनु मैं वहै मरगजी माल॥467॥

देखत = देखते रहने पर। डहडही = हरी-भरी, फूली-फली, आनन्दित। सबनु = सब लोगों या सखियों के बीच। मरगजी = मलिन, मुरझाई हुई।

हे लाल, तुमने सौतिन के देखते रहने पर भी अपने हृदय से (माला उतारकर) उसे दी, सो उस मुरझाई हुई (मलिन) माला को पहने वह सब (सहेलियों) में आनन्दित बनी फिरती है।


बालम बारैं सौति कैं सुनि पर-नारि-बिहार।
भो रसु अनरसु रिस रली रीझि खीझि इक बार॥468॥

बालम = बल्लभ = पति। बारैं = पारो, भाँज। बिहार = सम्भोग। रसु = सुख। अनरसु = दुःख। रिस = क्रोध। रली = क्रीड़ा, मजाक। रीझि = प्रसन्नता। खीझि = अप्रसन्नता।

सौतिन की पारी में अपने पति के दूसरी स्त्री के साथ विहार करने की बात सुनकर नायिका के मन में सुख और दुःख, क्रोध और मजाक, रीझ और खीझ (ये परस्पर-विरोधी भाव) एक ही समय हुए।

नोट - सुख, मजाक और रीझ इसलिए कि अच्छा हुआ, सौतिन को दुःख हुआ; और दुःख, क्रोध तथा खीझ इसलिए कि कहीं मेरी पारी में भी ऐसा ही न हो।


सुघर-सौति-बस पिउ सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास।
लखी सखी-तन दीठि करि सगरब सलज सहास॥469॥

सुघर = सुन्दर गढ़न की, सुडौल। दुलहिनि = नई बहू, नवोढ़ा। हुलास = आनन्द। सखी-तन = सखी की ओर। दीठि = नजर।

अपने पति को सुन्दरी सौतिन के वश में सुनकर नई बहू का आनन्द दुगुना हो गया। उसने गर्वीली, लजीली और हँसीली नजरों से सखी की ओर देखा।

नोट- आनन्दित होकर सखी की ओर देखने का भाव यह है कि हे सखी, घबराओ मत, यदि वे वस्तुतः सौन्दर्य के प्रेमी हैं, तो एक-न-एक दिन अवश्य मेरी ओर आकृष्ट होंगे। रूपगर्विता!!


हठि हितु करि प्रीतम लियौ कियौ जु सौति सिंगारु।
अपने कर मोतिनु गुह्यौ भयौ हरा हर-हारु॥470॥

हित = प्रेम। सिंगारु = शृंगार। गुह्यौ = गूँथकर। हरा = हार, माला। हर-हारु = शिव की माला, सर्प की माला।

अपने हाथों से मोतियों की माला गूँथकर हठ और प्रेम करके सौतिन ने प्रीतम के हृदय का जो शृंगार किया-प्रीतम के हृदय को उस मोतियों की माला से आभूषित किया-सो (वह मोतियों की माला) नायिका के लिए सर्प की माला (सी दुःखदायिनी) हुई।