बिहारी सतसई / भाग 66 / बिहारी
कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।
उहिं खाएँ बौराइ इहिं पाऐं हीं बौराइ॥651॥
कनक = (1) धतूरा (2) सोना। मादकता = नशा। बौराई = बौराता है, बावला या पगला हो जाता है।
सोने में धतूरे से सौगुना अधिक नशा है! क्योंकि उसे (धतूरे को) खाने से (मनुष्य बौराता है) और इसे (सोने को केवल) पाने (मात्रा) से ही बौराता है।
नोट - किन्तु मेरा कहना है कि ‘कनक-कनक से सौगुनौ कनक-बरनि तन ताय। वा खाये वा पाय ते या देखे बौराय॥’
ओठु उचै हाँसी भरी दृग भौंहन की चाल।
मो मनु कहा न पी लियै पियत तमाकू लाल॥652॥
उचै = ऊँचै करके। दृग = आँख। मो = मेरा।
ओठों को ऊँचा कर और आँखों तथा भौंहों की चाल को हँसीयुक्त बनाकर तमाखू पीते हुए प्रीतम क्या मेरे मन को नहीं पी गये? (जरूर पी गये! तभी तो ‘बे-मन’ हुई घूमती हो!!)
बुरो बुराई जौ तजै तौ चितु खरौ सकातु।
ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि गनैं लोग उतपातु॥653॥
सकातु = डरता है। मयंकु = चन्द्रमा। उतपातु = उपद्रव।
बुरे आदमी अगर अपनी बुराई तज देते हैं, तो मन बहुत डरता है-चित्त में भय उत्पन्न होता है। जिस प्रकार निष्कलंक चन्द्रमा को देखकर लोग उत्पात की आशंका करते हैं।
नोट - ज्योतिष में लिखा है कि यदि चन्द्रमा का काला धब्बा नष्ट हो जाय, तो संसार में हिम-वर्षा होगी।
भाँवरि अनभाँवरि भरे करौ कोरि बकवादु।
अपनी-अपनी भाँति कौ छुटै न सहजु सवादु॥654॥
भाँवरि भरे = चक्कर लगाओ। भाँति = ढंग। सहजु = स्वाभाविक। सवादु = रुचि, प्रवृत्ति।
(निगरानी करने की गरज से चाहे) उनके चारों ओर चक्कर लगाओ या न लगाओ, या उनसे करोड़ों प्रकार के बकवाद करो; किन्तु अपने-अपने ढंग की स्वाभाविक प्रवृत्ति छूट नहीं सकती-(वे उस ओर जायँगे ही)।
नोट - नायक किसी दूसरी स्त्री पर आसक्त है। नायिका उसकी खूब निगरानी करती है। उससे लड़ती-झगड़ती है। इस पर सखी का कथन।
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब मैं अपत कँटीली डार॥655॥
कुसुम = फूल। सु = वह। बहार = (1) छटा (2) वसन्त। अलि = भौंरा। अपत = पत्र-रहित। कँटीली डार = काँटों से भरी डाल।
जिन दिनों तुमने वे (गुलाब के) फूल देखे थे, वह बहर तो बीत गई-वह वसन्त तो चला गया। अरे भौंरे! अब तो गुलाब में पत्र-रहित कँटीली डालियाँ ही रह गई हैं।
इहीं आस अटक्यौ रहतु अलि गुलाब कैं मूल।
ह्वैहैं फेरि बसंत-रितु इन डारनु वे फूल॥656॥
अटक्यौ रहतु = टिका या अड़ा हुआ है। मूल = जड़। ह्वैहैं = होंगे।
इसी आशा से भौंरा गुलाब की जड़ में अटका हुआ है-उसकी ‘अपत कँटीली डार’ को से रहा है-कि पुनः वसन्त ऋतु में इन डालियों में वे ही (सुन्दर सुगन्धित) फूल होंगे।
नोट - यह दोहा पिछले दोहे के जवाब में लिखा हुआ मालूम पड़ता है। कैसा लासानी सवाल-जवाब है!
सरस कुसुम मँडरातु अलि न झुकि झपटि लपटातु।
दरसत अति सुकुमारु तनु परसत मन न पत्यातु॥657॥
मँड़रातु = मँड़ाता है, ऊपर चक्कर काटता है। दरसत = देखकर। मन न पत्यातु = मन नहीं पतियाता, तबीयत नहीं कबूल करती।
रसीले फूल पर भौंरा चक्कर काट रहा है, किन्तु झुककर और झपटकर वह नहीं लिपटता-झटपट उस फूल का आलिंगन नहीं करता, क्यांकि उस फूल का अत्यन्त सुकुमार गात देखकर स्पर्श करने को उसका मन नहीं पतियाता-उसकी तबीयत नहीं कबूल करती-(डर है कि कहीं स्पर्श करने से उसका सौकुमार्यपूर्ण) सौंदर्य नष्ट न हो जाय।
नोट - इस दोहे के पहले चरण को प्रश्न और दूसरे चरण को उसका उत्तर मानकर पढ़ने से और भी आनन्द आयेगा। फूलों पर भौंरे को मँडराते देखकर कोई पूछता है-”रसमय पुष्प से भ्रमर क्यों नहीं लिपटता?“ कोई रसिक उत्तर देता है-”पुष्प का सुकुमार गात देख चिपटने से हिचकता है।“
बहकि बड़ाई आपनी कत राँचति मति भूल।
बिनु मधुकर कैं हियैं गड़ै न गुड़हर फूल॥658॥
राँचति = प्रसन्न होती है। मधु = रस। गुड़हर = ओड़हुल।
हे गड़हर के फूल! अपनी बड़ाई में बहककर कितना प्रसन्न हो रहे हो? भूलो मत। बिना मधु के होने से (अत्यन्त सुन्दर होने पर भी) भौंरे के हृदय में नहीं गड़ते-उसे पसन्द नहीं पड़ते।
नोट - रूपगर्विता नायिका से सखी कहती है कि केवल सुन्दर रूप से कुछ न होगा, गुण (प्रेम की सुगन्ध) ग्रहण कर, तभी नायक वश में होगा।
जदपि पुराने बक तऊ सरबर निपट कुचाल।
नए भए तु कहा भयौ ए मनहरन मराल॥659॥
बक = बगला। तऊ = तो भी। सरबर = सरोवर। निपट = एकदम। कुचाल = खराब चाल।
ऐ सरोवर! यह एकदम खराब चाल है (इसे छोड़ दो)। यद्यपि वे (बगले) पुराने साथी हैं, तो भी आखिर हैं तो वे बगले ही। और (इन हंसों के) नये होने ही से क्या हुआ? ये हैं मन को मोहित करने वाले हंस। (अतः बगले को छोड़ हंस की संगति करो-परिचित अपरिचित का खयाल छोड़ दो।)
अरे हंस या नगर मैं जैयो आपु बिचारि।
कागनि सौं जिन प्रीति करि कोकिल दई बिड़ारि॥660॥
बिड़ारि = खदेड़ देना, भगा देना।
अरे हंस! इस नगर में तू सोच-विचारकर जाना, (क्योंकि इस गाँव में वे ही लोग रहते हैं) जिन्होंने कागों से प्रीति करके कोयल को खदेड़ दिया था।