बिहारी सतसई / भाग 70 / बिहारी
नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि॥691॥
अनाकनी दई = आनाकानी कर दी, सुनि अनसुनी कर दी, कान बन्द कर लिये। गुहारि = पुकार, कातर प्रार्थना। तारन-बिरदु = भवसागर से उबारने का यश, तारने की बड़ाई। बारक = एक बार। बारनु = हाथी।
(हे प्रभो, तुमने तो) अच्छी आनाकानी की (कि मेरी) पुकार ही फीकी पड़ गई! (मालूम होता है) मानो (तुमने) एक बार हाथी को तारकर अब तारने का यश ही छोड़ दिया! शायद दीनों की कातर प्रार्थना अब तुम्हें फीकी मालूम होती है।
दीरघ साँस न लेहि दुख सुख साईं नहि भूलि।
दई-दई क्यौं करतु है दई दई सु कबूलि॥692॥
दीरघ = लम्बी। साईं = स्वामी, ईश्वर। दई = दैव। दई = दिया है।
दुःख में लम्बी साँस न लो, और सुख में ईश्वर को मत भूलो। दैव-दैव क्यों पुकारते हो? दैव (ईश्वर) ने जो दिया है, उसे कबूल (मंजूर) करो।
कौन भाति रहिहै बिरदु ब देखिबी मुरारि।
बीधे भोसौं आइकै गीधे गीधहिं तारि॥693॥
बिरद = ख्याति, कीर्ति। मुरारि = श्रीकृष्ण। बीधे = बिधना, उलझना। गीधे = परक गये थे, चस्का लग गया था।
हे श्रीकृष्ण, अब देखूँगा कि तुम्हारा यश किस तरह (अक्षुण्ण) रहता है! (तुम) गीध (जटायु) को तारकर परक गये थे, किन्तु अब मुझसेआनकर उलझे हो-(मुझ-जैसे अधम को तारो, तो जानूँ!)
बंधु भए का दीन के को तार्यौ रघुराइ।
तूठे-तूठे फिरत हौ झूठे बिरदु कहाइ॥694॥
का = किस। तूठे-तूठे = संतुष्ट होकर। बिरद = बड़ाई, कीर्ति।
हे रघुनाथ, तुम किस दीन के बंधु बने-किसके सहायक हुए, और किसको तारा? झूठमूठ का विरद बुलाकर-अपनी कीर्ति लोगों से कहला कहलाकर-तुम (नाहक) संतुष्ट बने फिरते हो!
थोरैं ही गुन रीझते बिसराई वह बानि।
तुमहूँ कान्ह मनौ भए आज-काल्हि के दानि॥695॥
तोरैं ही = थोड़े ही। रीझते = प्रसन्न होते। बानि = आदत।
ऐ कन्हैया, (तुम जो) थोड़े ही गुण से प्रसन्न हो जाते थे वह आदत (तुमने) भुला दी। मानो तुम भी आजकल कलियुग के दानी हो गये हो (जो हजार सर पटकने पर भी धेला नहीं देते)।
कब कौ टेरतु दीन ह्वै होत न स्याम सहाइ।
तमहूँ लागी जगतगुरु जगनाइक जग-बाइ॥696॥
टेरत = पुकारता है। जग-बाइ = संसार की हवा।
कब से दीन होकर पुकार रहा हूँ-कातर प्रार्थना कर रहा हूँ, किन्तु हे श्याम, तुम सहाय (प्रसन्न) नहीं होते। हे संसार के गुरु और प्रभु, (मालूम होता है), तुम्हें भी इस संसार की हवा लग गई है-संसारी मनुष्यों की भाँति तुम भी निठुर बन गये हो!
प्रगट भए द्विजराज-कुल सुबस बसै ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब केसव केसवराइ॥697॥
द्विजराज = (1) उत्तम ब्राह्मण (2) चंद्रमा। केसव = केशव, श्रीकृष्ण। केसबराइ = बिहारीलाल के पिता।
श्रेष्ठ ब्राह्मण-वंश में (‘कृष्ण’ अर्थ में ‘चन्द्रवंश’ में) प्रकट हुए, और अपनी इच्छा से ब्रज में आ बसे। वह कृष्ण-रूपी (मेरे पिता) केशवराय मेरे सब कलेशों को दूर करें।
घर-घर डोलत दीन ह्वै जन-जन जाँचतु जाइ।
दियैं लोभ-चसमा चखनु लघुहू बड़ौ लखाइ॥698॥
डोलत = घूमता-फिरता है। चखनु = आँखों पर। चसमा = ऐनक।
(यह लालची मन) दीन बनकर घर-घर घूमता (मारा फिरता) है, और प्रत्येक मनुष्य से याचना करता जाता है-कुछ-न-कुछ माँगता ही जाता है; क्योंकि आँखों पर लोभ का चश्मा देने से छोटी (मामूली) चीज भी बड़ी (बेशकीमती) दीख पड़ती है।
कीजै चित सोई तरे जिहिं पतितनु के साथ।
मेरे गुन-औगुन-गननु गनौ न गोपीनाथ॥699॥
जिहिं = जिससे। गननु = गुणों, समूहों। गनौ न = खयाल न करो।
हे गोपीनाथ! वैसा ही (कृपालु) मन रखिए-इरादा कीजिए, जिससे मैं न गिनिए, (क्योंकि पार न पाइएगा, अतः दया कर तार ही दीजिए)।
ज्याैं अनेक अधमनु दियौ मोहूँ दीजै मोषु।
तौ बाँधौ अपनैं गुननु जौ बाँधैही तोषु॥700॥
मोषु = मोक्ष। गुननु = (1) गुणों (2) रस्सियों। तोषु = संतोष।
जिस प्रकार आपने अनेक पतितों को मोक्ष दिया है, उसी प्रकार मुझे भी दीजिए-आवागमन से छुड़ाइए-(अथवा) यदि बाँधने ही से (सांसारिक माया-मोह के बंधनों में फँसाये रखने से ही) संतोष हो, तो अपने गुणों (की रस्सियों) से ही बाँधिए। (बंधन या मोक्ष, दो में से कोई एक, तो देना ही पड़ेगा!)