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बीच-बीच में / दिनेश कुमार शुक्ल

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कुछ है जो बीच-बीच में
ऊपर आ जाता है उतराता
सब कुछ को परे धकेलता
‘यह’ कुछ भी हो सकता है

जैसे अभी जो बात कही आपने
वही बीच में आकार
कुछ-न-कुछ धुँधला कर जायगी
आपके कथ्य को
साफ-साफ काँच-सा
पारदर्शी नहीं होता यथार्थ
काँच भी कहाँ पूरी तरह पारदर्शी होता है
वह भी रोक लेता है बीच में
कुछ-न-कुछ

बीच-बीच में चलते-चलते रूक जाती है कथा
सूत जी फिर से संवाद बोलते हैं
बीच-बीच में फिर सिरे से शुरू करना होता है सब-कुछ
बीच-बीच में चले जाते हैं कुछ लोग उठकर
खलल पड़ता है पर चलता रहता है जीवन
बीच-बीच में बन्द हो जाती है हृदय की धड़कन
लेकिन फिर से सहृदय हो जाते हैं लोग
बीच-बीच में रूक जाना
चलते रहने की ही अभिन्न क्रिया है