बीच का बसन्त / विजयदेव नारायण साही
बीते हुए कुंचित कुतूहल औ’
आने वाले तप्त आलिंगन के
बीच हम तुम जैसे
प्यास सहलाती मीठी ममता में बहते हैं
वैसे ही
कुहराए शीत और उष्णवायु आतप के
बीचोंबीच कसा यह
मौसम गुलाबी है ।
शुभ हो बसन्त तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मन्द-मन्द हिलकोरता ।
ऊपर से बहती है सूखी मण्डराती हवा
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि-कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फूट से हैं सीठे अधजगे होंठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है
बीच का बसन्त यह
वैभव है अद्वितीय
डूब-डूब जीना इसे
मन में सँजोना
यहीं लौट-लौट आना, वह जाना, सींच देना प्राण
इतना कि रग-रग में ममता-सा बस जाए ।
जीवन में कभी भी जो
प्यार का यह आदिम प्रकाश-पुँज
कटुता से, संशय से, आतुर हताशा से
मद्धिम पड़ जाएगा —
तब यह जिलाएगा :
शुभ हो बसन्त तुम्हें
भेंटता पवित्र, मन्द-मन्द हिलकोरता ।