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बीच की खाई / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
मारता है वक़्त चोटें, सिर उठाता हूँ
और अपना दर्द सारा भूल जाता हूँ
सिर उठाना दम्भ का सूचक नहीं, भाई
यह इशारा है पटेगी बीच की खाई
आदमी को आदमी के पास लाता हूँ
और अपना दर्द सारा भूल जाता हूँ
संगठन यह वक़्त का पंजा मरोड़ेगा
रूढ़ियों के जंगली नाख़ून तोड़ेगा
आँख पर से अपशकुन तिनका हटाता हूँ
और अपना दर्द सारा भूल जाता हूँ