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बीच मझधार के वो फँसा रह गया / दरवेश भारती
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बीच मझधार के वो फँसा रह गया
जो किनारों को ही देखता रह गया
चुप्पियाँ, चुप्पियाँ ही थीं दोनों तरफ़
हाले-दिल अनकहा, अनसुना रह गया
हक़ की ख़ातिर जो मुंसिफ़ से तकरार की
फ़ैसला झूलता , झूलता रह गया
जब कभी संगदिल नेट् उड़ा यक-ब-यक
गुफ़्तगू का हसीं सिलसिला रह गया
कोशिशों से भी मंज़िल न जब मिल सकी
रह गये पाँव और रास्ता रह गया
बेवफ़ाई का ग़म था कुछ ऐसा कि जो
उम्र-भर सालता, सालता रह गया
जिसको आँखों में पाला किये दम-ब-दम
ख़्वाब 'दरवेश' वो दीद का रह गया