बीजगुण / राम सेंगर
है निषेध का ज़हर पुराना
तो क्या कीजे
पानी को पानी-सा पी रहे ।
इसी लाल-पीली आँधी में
अपने से, अपनों से, सपनों-से टूटे हैं
इसी लाल-पीली आँधी में
आँधी के बाद के अज़नबी विश्वासों की
रोमांचक एक कहानी रहे ।
मिल गया क़सीदा सो काढ़ा
रहे विघ्नसन्तोषी वक़्त के निशाने पर
मिल गया क़सीदा सो काढ़ा
औक़ातें सब की, अपनी-अपनी तुरुपें हैं
बावज़ूद इसके बाक़ी रहे ।
युद्धाभ्यासों में दिन बीते
मूढ दुर्विनीत अहमभारिल गतिरोधमयी
युद्धाभ्यासों में दिन बीते
प्राणांतक दुर्गति में भाषा कैसे साधी
मक़सद के बावरे धुनी रहे ।
मुक्ति कहाँ, बाज़ी ही पलटी
कालचक्र में उलझी बुद्धि का विलास बने
मुक्ति कहाँ, बाज़ी ही पलटी
तर्क को उलट कर, सब जीते अन्धी रौ में
हम में वे बीजगुण नहीं रहे ।
सांगीतिक पीठि के सहारे
खींच रहे ख़ुद को, उपहास के दलिद्दर से
सांगीतिक पीठि के सहारे
सामाजिक पृष्ठभूमियों में आँखें खोले
जीने के यों भी आदी रहे ।