बीजल से एक सवाल / सुमन केशरी
कैसेट तले बेतरतीब फटा कॉपी का पन्ना
कुछ इबारतें टूटी-फूटी
शब्द को धोता बूँद भर आँसू
पन्ने का दायाँ कोना तुड़ा़-मुड़ा
मसल कर बनाई चिन्दियाँ
फैलीं इधर-उधर
कुछ मेज़ पर
कई सलवट पड़ी चादर पर
तो बेशुमार कमरे में
फ़र्श पर इधर-उधर
टूटे बिखरे पंख और रोएँ
कमरे में क़ैद पंछी कि
फड़फड़ाता
उड़ता
निकले को व्याकुल
खुले आकाश में
एफ़० एम० चीख़ता
घड़घड़ाता ट्राँजिस्टर
थका...
थका...
दरवाज़ा औंधा पड़ा था धराशाई
सामने टँगी थी एक आकृति
सफ़ेद सलवार पहने
चेहरा छिपाए
पंखे के ब्लेड से
'दीदी' चीख़ा था भाई
'बिटटो' चिल्लाए पिता
माँ खडी थी मुँह में आँचल दबाए
फटी आँखों से घूरती
लटकती देह को
जिस पर चोटें अब भी ताज़ा थीं
पाँवों और कलाई पर
कसी गई रस्सी की
चाकू के नोक की
सिगरेट के झुलस की
जिन पर आठ-दस मक्खियाँ अलसाई-सी बैठी थीं
और जाने कितनी भिनभिना रही थीं आस-पास
बेखौफ़
बाएँ पैर के अॅंगूठे पर बँधी पट्टी से
रिसता ख़ून सूख गया था
सब कुछ ठहर गया था
एक उस पल में
छोड़ भिनभिनाती मक्खियों के
घड़घड़ाते ट्रांजिस्टर के
और थके कमज़ोर पंखों पर
शरीर तोल
घायल पंखों को फैला
बाहर उड़ने को व्याकुल पंछी के
जो बार-बार कभी
मुड़े पंखे पर बैठता तो
कभी खिड़की की सलाख़ों पर
कभी छत से टकरा
नीचे गिरने को होता
और किसी तरह
घायल कमज़ोर पंखों के सहारे ही
ख़ुद को उड़ा लेता इधर-उधर
चीख़ सुन पट-पट खिड़कियाँ खुलीं
जंग खाए कब्ज़ोंवाले
कई-कई दरवाज़े खुले चर्र... चर्र... चीं
धड़-धड़ भागते हुए क़दमों की आवाज़ें
पल भर बाद ही खड़ा था जनसमूह
घर के दरवाज़े पर
आँखों में कौतुक और दिल में छुटकारे का चैन लिए
कि यह तो होना ही था
होना भी चही चाहिए था
पर (तो) कहा जनसमूह ने
आह ! यह क्या हो गया
कैसे हुआ यह सब ?
मानो कहना चाहता था
अब तो चुप्पी तोड़ो
कहो क्या हुआ था उस रात
उस 'हादसे' की रात
आगे बढ़े लोग
पंछी पंख फड़फड़ा खिड़की पर जा बैठा सिकुड़ा-सा
बेचैन कातर नज़रों से ताकता
प्राणों की भीख माँगता
अनकही कहानी ख़ुद गढ़ते थे लोग अब
सामने शरीर था कल्पना उकसाता
नज़रें अब शरीर तौलती थीं
भिन्न-भिन्न कोणों से
लम्बाई औसत सही
उभार मन भावन
त्वचा की लुनाई नीलेपन से और उभ्रर रही थी
चेहरा ढँक-सा गया था
काश! वह भी दिख पाता
पर हाँ, याद आया
आँखें बड़ी-बड़ी
कभी चौंकती कभी असमंजस में जड़ीं
उँगलियाँ लपेटती थीं
दुपट्टे का सिरा
पर क़दम ऐसे मानों
मौक़ा मिलते ही
थिरकने लगेंगे
पृथ्वी नाप लेंगे....पलभ्रर में
आत्मा की हलचल कौंधती थी देह में
फूट पड़ती थी कभी गीतों के बोल में
रेडियों के संग-संग
आज लटकी पड़ी थी वही देह शान्त
सब देखने-सुननेवालों को करती अशान्त
क्या हुआ था उस रात
उस हादसे की रात
कोरी चुनरिया-सा
औरत का जीवन
पल भ्रर में दाग लगे
पल भ्रर में खोंच
जग की निगाहों से बचती-बचाती
पिता की दहलीज से चिता की दहलीज तक
बीच पति गेह
जानती है वह भी
तो मानती है क्यों नहीं
लाँघती क्यों बार-बार वह लखन रेख...
मन्त्रोच्चार-सी ये बातें कही गईं सुनी गईं
बिना कहे सुने भी
आत्मा बस भटकती रही कमरे में बन्द पंछी-सी
सिर्फ़ उसे पता था
क्या हुआ था उस रात
उस हादसे की रात
भय में
पीड़ा में
मृत्यु में
बदलती
विश्वास की रात
आनन्द की रात
प्रेमी था वह तो
फिर क्यों किया उसने ऐसा व्यवहार
औरत का प्रेम तो
संशयों पर पलता है
समाज की निगाहों से
संस्कार की जकड़नों से
अहं के भावों से
बचता-टकराता
विश्वास की डाल पकड़
बेल-सा चढ़ता है
(आत्मा से देह तलक)
औरत के लिए प्रेम
जीवन की सीप में
स्वाति की बूँद बन
मुक्ति-सा पलता है
बूझ नहीं पाता यह
आत्ममुग्ध हिंस्र पौरूष
जिसके लिए प्यार-व्यार तिरिया चरितर है
टाईपास भर
गुड़िया-सी सजी धजी
गुड़िया-सी चाभी लगी
गुड़िया-सी गूँगी ही
औरत उसे पसन्द
बोलते ही गुड़िया को तोड़ता-मरोड़ता वह
आत्मा फिर भी बची रहती
प्रश्नों के रूप में
फन काढ़े नागिन को
पाँवों से कुचलता वह बेइज़्ज़ती के
बना छोड़ता उसे बस देह भर
कपड़े-सा बरतकर फेंक देता उसे
गलियों में
पाँवों तले रुँदने को
चिथड़े-सा
टूटा विश्वास डाल
टूटी सब आस
झूठे सब बन्धन
होता यही अहसास
पल-पल के ताँसने से
पर सुनो तो बीजल
सच क्या इतना भर था
बस इतना भर
कहो तो
क्या सच ही
औरत का जीवन
बस कोरी चुनरिया है?
पूछता कबूतर है
घायल कबूतर
एकटक देखता वह
लटकती देह को
काँपता है......
चीख़ता है......
फड़फड़ाता उड़ता है
ऊँचे आकाश में
चील-सा
सुना है तुमने कभी
कबूतर को चीख़ते
देखा कभी उड़ते उसे ऊँचे आकाश में
चील-सा?
आत्मा फिर भी बची है
प्रश्नों के रूप में...