बीज-संवेदन- 11 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
सच कहता हूँ
एक सीख घुली थी मेरे लहू में
अकेले चलने, अकेले होने का
एक आवेग था, एक आवेश था
सो मैं अकेले चल पड़ा
अकेले हो लिया.
लेकिन अनुभव का घॅूट पीकर देखा
कितना कठिन है अकेले चलना
इसमें फैलना और सिकुड़ना पड़ता है
जिसकी कशमकश
मेरे होने की सीमा में
गाँठें पुरता है
मैं आमूल थर्रा उठता हूँ
कदम डगमगा उठते हैं
धरती का ठोसपन
एक भ्रम बन जाता है
आकाश का फैलाव, एक छलावा
मेरे होने के टिकावों में
एक पिघलन ठॅुक जाती है
जो मुझे गिर्द के खॅूटों से अलगाती है
जो मुझमें
मिटने का डर पैदा करती है
हालॉकि अनुभव के एक क्षण में
मैं गवाही दे सकता हूँ
मेरे अकेलेपन ने
एक अनूठा एहसास दिया
पर वह मेरा नहीं हो सका.
यूँ तो हूँ मैं
परमाणुओं का एक संघट्ट ही
और इस तरह
अकेले होने का अर्थ नहीं
लेकिन
मेरी देहयष्टि में जो पुरा है
वह मुझे अकेला करता है
मुझे रचना की
एक इकाई बनाता है
मेरी इकाई ही चलती है
लोगों से और अपनों से
यह इकाई ही टकराती है
इन क्षणों में
इसे किसी मूल का
कोई ख्याल नहीं रहता
तो क्या
इसके अकेलेपन का भय
किसी मूल से अपरिचय का भय है
यह तो केवल तुम्हीं जानते हो
मैं भी जान जाऊँ तो बात बने.