बीज-संवेदन- 3 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
कितना अच्छा होता
जब आकाश मेरी मुट्ठी में होता
और मैं आकाश की मुट्ठी में
मैं फूलों की खिलावट में खिलता
और फूल मेरी खिलावट में.
बैठे ठाले का धंधा लेकर
किसी दिन मैं ध्यान में डूबा
तो देखा
मेरे खिलने के साथ
सारी दुनिया खिल उठी है
ध्यान से जब उतरा
तो फिर से दुनियावी एहसास
मुझे छेड़ने लगे थे
फिर एक बार मैं
चतुर्दिक दबाओं, तनावों में
मुहरबंद हो गया था.
कितना अच्छा होता
जब मेरा खिलना
सहज सरल
और निरंतर हो पाता
मौसम की मारों में विकसनशील
ठीक उस फूल की तरह
जो प्रकृति की क्यारी में
प्रकृति की रसानुभूति पीकर
अंतरिक्ष में किलकारी भरता है.
कितना अच्छा होता
जब मैं भी
अपने गिर्द के मर्म को पीकर
किलकारियों की मर्मानुभूति को
जी पाता.
एक ऐसे क्षण का मैं गवाह हॅू
जिसमें कुंठा, घुटन, त्रास
और उमंगों को तोड़ते तनाव
ग्रंथियों की तरह घुलकर
अंतर्मनस के प्रवाहों को
सहज स्वाभाविक कर देते हैं.
कितना अच्छा होता
जब मैं
सहज सरल और
स्वाभाविक हो पाता.