बीज-संवेदन- 4 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
तुम्हारे और मेरे बीच
एक टुकड़ा दूरी का मुझे भान है.
मगर क्या ही अच्छा हो
यह दूरी
पत्थरों की नहीं फूलों की हो.
पथरीलापन मुझे पसंद नहीं
लेकिन यह सच है
कि मेरी भावनाऍ मेरे अनजाने ही
पथराना शुरू कर देती हैं
जब मेरी ऑखें खुलती हैं
वे पथरा चुकी होतीं.
कुछ अधखिले फूल भी
पंखुरियों में सिमट कर
पत्थरों के बन जाते हैं
क्या ही अच्छा हो
इन पत्थरों में ही फूल खिल आएँ
और पत्थर, पत्थर न रह कर
घाटी की ढलानों की निसेनी बन जाऍ
जो फूलों तक की पहॅुच को
अनिवार जोड़ते हैं.
मैंने सुना है
पुरानी गवाही भी है
कि पत्थरों में भी फूल खिलते हैं
उनके दरारों के पाटों में
कुंठा औंर संत्रास के तनावों को
झेलती दूबें
उनका सीना फाड़ कर
इतरा उठती हैं
और फूलों के यात्रियों की
कठोर यत्राओं में उनके तलवे तर करती है.
क्या ही अच्छा हो
मेरी घाटी के पत्थर ही
मेरी निसेनी बन जाऍ
ताकि पड़ोस के पथरीले तनावों को
मैं कदम कदम पार कर जाऊँ.