बीज-संवेदन- 5 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
ढेर सारे प्रकाश के खंडहर में
मुझे तलाश है
लौ भर प्रकाश की
जो मेरे अस्तित्व को
गतिशील कर दे
और मेरे होने के अर्थ को
उद्भासित कर दे.
मेरे गिर्द की बहती हवाओं ने
मुझे मेरी निजता से
अलग थलग कर रखा है
मैं अपनी स्वाभाविकता खो चुका हॅू
अलग अलग पहचान वाले
इतने सारे प्रकाश
मेरे गिर्द मॅडरा रहे हैं
लेकिन मेरी पहचान तक
मुझे पहॅुचाने वाला
लौ भर प्रकाश मुझे नसीब नहीं है.
उस ठॅूठ ने
लौ भर प्रकाश को पाकर
अपने स्वभाव को पा लिया है
तनावों की नींव पर
उसका इतराना बंद हो चुका है
मैं अपने जिस्म में
तनावों की गहराई बोकर
असहज होता जा रहा हॅू
बावजूद इसके
तनावों के अंश
भले ही पिघलते हैं
पर मेरी सहजता मुझे नहीं मिलती
उस लौ भर प्रकाश को पाकर
मिलने वाली सहजता की झलक
मेरी अनुभूति में
बीज बिंदु की तरह
क्षीण ही सही
पर लगातार उद्भासित है
मेरी तीव्र आकांक्षा है
वह लौ भर प्रकाश मुझे मिल जाए
और मैं
सहज स्वाभाविक
अपने जीवन को पा सकूँ.