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बीज रूप / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

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मैं
एक भ्रूण
जीता जागता
अपनी पहली जिन्दा
साँसे लेना भी शायद
सिख न पाया

कौन हूँ मैं...
निरुत्तर सा ढूँढता हुआ
खुद ही तलाशत करता
अपनी पहचान से भी हूँ परे
हूँ मैं

शायद माता पिता के
क्षणिक दैहिक सुख का
प्रतिफल / या
या किसी के निर्मम
वहशीपन का
एक 'तमाचा' मात्र हूँ मैं

पर प्रश्न है
ओ माँ तुझसे ये
क्यों रखा था संजो कर
नौ महीने अपने गर्भ में

क्यों होने दिया विकसित
मेरे अंग प्रत्यंग को तूने

क्यों न सुन पाई मेरे दिल की
वो धड़कन जो बजती थी
तेरे ही अंदर

तेरे ही गर्भनाल से जुड़ा था
था तेरे रक्त से ही सिंचित
फिर भी तेरे ममता की
कलियाँ क्यों रह गयी
अविकसित माँ

जब फुट रहे थे तेरे अंदर
नव जीवन की अंकुर बेल
तब ही क्यों न सुला दिया था
मुझे प्रगाढ़ सी निंद्रा में मेरी माँ

पता नहीं कैसी होती होगी
माँ की ममता भरी सी गोद
पर बहुत ही चुभ रहें है
धरती माँ के सख्त सी गोद

देखो न चन्द आवारा से कुत्ते
मुझे देख मुस्कुरा रहे
मुझे नोच नोच खा जा जाने का
ये मिल जश्न मना रहे।

बस चन्द क्षणों के बाद
मेरा वजूद खत्म हो जायेगा
आस्तित्व मेरे होने का फिर इस
जहाँ से फिर मिट जाएगा

पर प्रश्न मेरे मन में
अब भी है कौंध रहा / कि
पुत्र कुपुत्र तो हो सकता है
माता कुमाता नहीं होती ना माँ

तेरा ही
बीज रूप