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बीता हुआ दिन / शरद कोकास
Kavita Kosh से
कल का जो दिन बीता
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल कितनी प्रतीक्षा थी
हवाओं में फैले गीतों की
गीतों को पकड़ते सुरों की
और नन्हे बच्चे सी मुस्कराती
ज़िन्दगी की
कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल राजाओं के
मखमली कपड़ों के नीचे
मेरे और तुम्हारे
उसके और सबके
दिलों की धड़कनें
काँटे मे फँसी मछली-सी
तड़पती थीं
सचमुच प्रतीक्षा थी तुम्हारी
ओ आसमान की ओर बहती हुई हवाओ
तुम्हारी भी प्रतीक्षा थी
लेकिन कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन-सा था
कल का वो दिन
आज फिर उतर आया है
तुम्हारी आँखों में
आज भी तुम्हारी आँखें
भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
कल का खेल
खेल रही हैं ।