भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बीती विभावरी (पैरोडी) / बेढब बनारसी
Kavita Kosh से
बीती विभावरी जाग री
छप्पर पर बैठे कांव कांव करते हैं कितने काग री
तू लंबी तीने सोती है बिटिया 'माँ-माँ' कह रोती है
रो-रोकर गिरा दिए उसने आंसू अबतक दो गागरी
बीती विभावरी जाग री
बिजलीका भोंपू बोल रहा, धोबी गदहेको खोल रहा
इतना दिन चढ़ आया लेकिन, तूने न जलाई आग री
बीती विभावरी जाग री
उठ जल्दी से दे जलपान मुझे, दो बीड़े दे-दे पान मुझे
तू अब तक सोयी है आली जाना है मुझे प्रयाग री
बीती विभावरी जाग री
(प्रसाद जी की कविता 'बीती विभावरी जाग री' की पैरोडी)