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बीते पल / कल्पना लालजी

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मन मेरा फिर आज किया मैं भी बच्चा बन जाऊँ
छोड़ झमेले दुनियादारी के मीलों की फिर दौड लगांऊ
छूमंतर हो गया बचपना कैसे और कब जान न पाया
आँख खुली जब मेरी एक दिन राशन का थैला हाथ में पाया
गिल्ली डंडा और पतंगे रख तकिये के नीचे सोता था
मेरी कन्नी काटी किसने बरसों बीते जान न पाया
दौड भाग की बात न पूछो आगे ही आगे रहता था
कड़ी धूप और वर्षा को भी हँसते–हँसते सहता था
अठखेलियां बचपन की याद आज भी आती हैं
कानो से जब किलकारियां अनजाने ही टकराती हैं
कहाँ उड़ गए सोने के पल आज़ादी के साँझ–सवेरे
छोड़ गए क्यों बेड़ियों में जकड़े मेरे अरमान सारे