शताब्दियाँ बीत गई हैं 
हाथों में झण्डे उठाए : कि जब 
हथेलियों में दाग़ पड़ गए हैं गहरे 
कि अब मौसम बदलता ही 
नहीं कभी । 
केवल रहता है धूप, छाँव और अन्धेरे का पहरा : 
चौंधियाती हुई रौशनी और घुप अन्धेरे में 
रास्ता टटोलते -टटोलते 
आँखों के रंग फीके पड़ गए हैं । 
शब्दों, ध्वनियों व पदचापों से केवल रिसने की आवाज़ 
आती है : 
कहीं नहीं सुनाई पड़ते आह्लादमय संगीत-सुर ! 
शताब्दियाँ बीत गई हैं 
हथेलियों को बाँधे-बाँधे 
आकाश 
में फहराते हुए झण्डे; गुनते हुए 
राष्ट्रीय धुन : कि 
अब सुनाई नहीं देता 
राष्ट्रीय धुन का आलाप या ढलती 
शाम में उगता पक्षियों का कलरव । 
केवल गुज़रता है 
आस-पास निरन्तर कोहराम, चीख़-चिल्लाहट : मातमी 
संगीत और तेज़ सीटियों का शोर : 
अब नहीं 
सुनाई देती कोई भी राष्ट्रीय धुन 
कहीं भी-कहीं भी : 
शताब्दियाँ रीत रही हैं ।