Last modified on 14 नवम्बर 2017, at 21:08

बीत गया है एक महीना / धीरज श्रीवास्तव

बीत गया है एक महीना लिया न उसने हाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!

कह देगी वह सोच रही है
दिल की सारी बात!
जैसे-तैसे दिन कट जाता
मगर न कटती रात!

बेदर्दी हो तुम क्या जानो मैं कितनी बेहाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!

पूछेगी कैसे निभ पायें
इतने सारे फर्ज!
रामरतन के घर जाकर मैं
लेकर आई कर्ज!

तब अम्मा की मिली दवाई है जी का जंजाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!
बरसावन की बिटिया का भी
आज हुआ है गौन!
मत बनना अन्जान ज़रा भी
नहीं पूछना कौन?

देख चुकी हूँ बरसों पहले बलम तुम्हारी चाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!

रोज उधारी माँगे फगुआ
मैं जाती हूँ टाल!
खड़ी समस्या है सिर पर ये
मुँह बाये विकराल!

निकल रहा दम चिन्ता में अब सिकुड़ रही है खाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!

सूख-सूखकर हुआ छुहारा
यहाँ तुम्हारा लाल!
जाने कितने दिन बीते हैं
बनी न घर में दाल!

बड़की भौजी भी ऊपर से करतीं रोज बवाल!
बैठ रमलिया मार रही है झल्लर को मिसकाल!