बीत जाये पूर्णिमा की रात यह सम्भव नहीं / सरोज मिश्र
ढूँढना होगा मदिर संकेत देते लोचनों को,
बीत जाये पूर्णिमा की रात यह सम्भव नहीं है॥
मान लूँ कैसे तुम्हारा चित्र मुझसे,
कह रहा हो, चंदनी स्पर्श ले लो।
बाँध लो जलधार फिर मुक्ता कणों से,
प्रीत लहरों पर हमारा नाम लिख लो।
आंजना होगा विगत के मांसली वातावरण को,
खिल सकेगा अधखिला जलजात यह सम्भव नहीं है!
ढूँढना होगा मदिर संकेत देते लोचनों को,
बीत जाये पूर्णिमा की रात यह सम्भव नहीं है॥
नाम के अक्षर लिखे दीवार पर जो,
या सहेजे फूल सूखे, पुस्तकों के।
एक जीवन का रहैं इतिहास होकर,
वे सभी परिधान बिखरे कुन्तलों के।
सोंचना होगा की सब सोंदर्य छलना छल चुकी है
स्वप्न की भी भंग हो सौगात यह सम्भव नहीं है॥
ढूँढना होगा मदिर संकेत देते लोचनों को,
बीत जाये पूर्णिमा की रात यह सम्भव नहीं है॥
क्या तलाशूं मूल्य या मधुशाला जियूँ मैं,
या गरल में घोलकर मुस्कान पी लूँ।
कल्पनायें कब तलक जीता रहूँ मै,
या की गिरवी भावना रख, अधर-सी लूँ।
मांगना होगा कोई प्रतिमान सुंदर कोपलों का,
रिक्तता में बढ़ सके अनुपात यह संभव नहीं है॥
ढूँढना होगा मदिर संकेत देते लोचनों को,
बीत जाये पूर्णिमा की रात यह सम्भव नहीं है॥