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बीमारी में / दिनेश दास

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मौत की कराल परछाई
मैंने बार-बार देखी है दीवार पर
रात के अदृश्य तूफ़ान तरह
ध्वस्त पहाड़ की तरह स्थिर,
जीवन की नई बैंडेज खोलकर मैंने देखे
असहाय मूक कितने ही ज़ख्मी चेहरे --
शायद इसी का नाम मृत्यु ह ।

पत्थर की प्राचीर पर सिर्फ़ अँधेरा जमता है
बीचों-बीच हज़ारों साल से कै़द एक चिड़िया
सु्बह-दिन-रात फड़फड़ाती है पंख --
एकाकी हृदय
सागर की तरह है उसका फेनिल विस्तार।

ख़ून में उठता है साइक्लोन
चेतना के शिखरों पर हाँक लगाता है वज्र
इस्पात-सी कठोर देह को नोचती-खसोटती है:
निर्मल नाख़ूनों से।
टूट कर चूरा होती है रात
आसमान में भी डर के संकेत हैं --
सारी रात विलाप करते भटकते हैं
भूगर्भ के प्रेत।

फिर भी एक दिन मुझे सुनाई देती है
भोर के पक्षी की पुकार:
हरे तारे का चूरा
अवाक विस्मय लिये भुरभुरा कर झर जाता है।
देखता हूँ दूर .... उषा के पैरों के तलुवे सुखऱ् लाल हैं
जीवन्त जलाशय की मानिन्द टलमल कमाल की सुबह!

जीवन के स्वर्ण-निर्झर पर
अदृश्य पानी की टहनियों से झरता है पानी,
जीते हुए भी मरे-जैसा है मनुष्य
बदरंग और मिट्टी से बना:
आकाश के ऊपर है आकाश
समय के ऊपर समय ।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी