बीमार कलम / विमल राजस्थानी
कौन है जो रक्त की दो बूँद तृषिता को पिला दे
आजकल मेरी कलम सचमुच बहुत बीमार है रे
आँसुओं की निर्झरी ने रोग दूना कर दिया है
मौत दरवाजे खड़ी है, जानता संसार है रे
फूल जूही के लपेटे थी सुशोभित जो कलाई
सख्त लोहे की उन्हीं में आज क्यों जंजीर आई
लाल आँखें कर इसे क्यों दे रही निर्देश दुनिया
मुक्ति की इन बंधनों से हो गयी कैसी सगाई
अंकुशों से बिंध गयी है फूल-सी सुकुमार काया
वज्र यह कैसा नियति के क्रूर हाथों ने गिराया
जो रही उन्मुक्त, थिरकी जो कमल की पंखुरी पर
आज उसके पद तले क्यों दहकता अंगार है रे
क्यों तराशी है गयी यह जीभ रे कोई बता दे
कौन पर्दे में छिपा है, हुक्म यह किसका, पता दे
जानता है वह कि इसकी नोंक में है धार इतनी
विश्व की बारूद में है शक्ति जितनी, मार जितनी
बस, इसे दो बूँद अपने हृदय के रस की पिला दे
मर रही है शक्ति मानव की इसे कोई जिला दे
बात क्या इस पार की, चुटकी बजाते छीन लेगी-
सप्त स्वर्गों का सुखद संसार जो उस पार है रे
शब्द है यदि ब्रह्म तो फिर ब्रह्म बँध कैसे सकेगा
ज्योति का यह कारवाँ कैसे प्रगति-पथ पर रुकेगा
लाख बाँधो बंधनों से, लाख तुम जंजीर डालो
लाख तोपों से सजो तुम ऐटमी फौजें उछालो
लेखनी की नोंक से तलवार मुड़ कर टूटती है
शब्द के ज्वालामुखी से क्रांति-धारा फूटती है
ठोकरों में ठोकरों-सा ताज इसके लोटते हैं
वज्र से भी सौगुना इसका प्रदीप्त प्रहार है रे
और जो कुछ भी करो तुम, स्वर्ग धरती पर उतारो
साथ देगी यह तुम्हारा, विश्व की किस्मत सँवारो
पापियों के शीश काटेगी स्वयम् यह नोंक से रे
किन्तु, ओ नादान! इसको तुम न यों बेमौत मारो
शक्ति खो देगी कलम जिस क्षण, मनुजता रो उठेगी
हो प्रणत इसके चरण पर शक्ति का आधार है रे
सृष्टि के सौन्दर्य का, देवत्व का, अमरत्व का यह-
लेखनी ही मात्र सुन्दर-सत्य-शिव-शृंगार है रे