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बीमार सड़कें / अमृता सिन्हा
Kavita Kosh से
गहराती रात
और
लॉकडाउन का सन्नाटा
ऊँची इमारतों से झाँकती
ख़ामोश खिड़कियाँ
कुछ टिमटिमाती रौशनी और
कई जोड़ी उदास आँखें
जहाँ से निकलते हैं कई रास्ते,
कुछ काली सर्पीली सड़कें
जो कहीं नहीं जातीं
बस पसरी रहती हैं यूँही
जिनकी शिथिलता से त्रस्त हैं
क़तार में खड़े वृक्ष
बन रहे हैं गवाह
ठहरे समय के, जीवन
की अनिश्चितताओं के।
थम-थम कर चलता
वह बूढ़ा
थके पैरों से बेपरवाह
कौतुक आँखों से ढूँढ़ता
कोई ठौर, कोई पनाह
तभी पास से गुज़रती
है एक एम्बुलेंस,
ढेरों सवाल जबाब के बाद
ले जाती है साथ उसे
रह जाती है फिर वही वीरान सड़कें
पहले से ज़्यादा उदास और बेहद ख़ाली।